Go To Mantra

नि॒यु॒वा॒ना नि॒युत॑: स्पा॒र्हवी॑रा॒ इन्द्र॑वायू स॒रथं॑ यातम॒र्वाक् । इ॒दं हि वां॒ प्रभृ॑तं॒ मध्वो॒ अग्र॒मध॑ प्रीणा॒ना वि मु॑मुक्तम॒स्मे ॥

English Transliteration

niyuvānā niyutaḥ spārhavīrā indravāyū sarathaṁ yātam arvāk | idaṁ hi vām prabhṛtam madhvo agram adha prīṇānā vi mumuktam asme ||

Pad Path

नि॒ऽयु॒वा॒ना । नि॒ऽयुतः॑ । स्पा॒र्हऽवी॑राः । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । स॒ऽरथ॑म् । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । इ॒दम् । हि । वा॒म् । प्रऽभृ॑तम् । मध्वः॑ । अग्र॑म् । अध॑ । प्री॒णा॒ना । वि । मु॒मु॒क्त॒म् । अ॒स्मे इति॑ ॥ ७.९१.५

Rigveda » Mandal:7» Sukta:91» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:6» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:7» Anuvak:6» Mantra:5


Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रवायू) “इदङ्करणादित्याग्रयणः”  ॥ नि० १०, ८, ९ ॥ अर्थात् सब कर्मों में जो व्याप्त हो, उसे इन्द्र कहते हैं। “वातीति वायुः” जो सर्व विषय को जानता है, वह वायु है। हे कर्मयोगी और ज्ञानयोगी पुरुषो ! (अर्वाक्) हमारे सम्मुख (सरथं) अपने कर्मयोग और ज्ञानयोग के मार्ग को लक्ष्य मानते हुए (यातं) हमारे सामने आयें, (स्पार्हवीराः) आप सर्वप्रिय हैं और (नियुवाना) उपदेश के मार्ग में नियुक्त किये गये हैं और (नियुतः) जो तुम्हारा योगमार्ग है, उसका आकर हमें उपदेश करो। (वाम्) तुम्हारे लिये ही निश्चय करके (मध्वः) मीठे पदार्थ का (इदम्) ये (अग्रम्) सार भेंट किया जाता है, आप इसे ग्रहण करें (अथ) और (प्रीणाना) प्रसन्न हुए आप (अस्मे) हम लोगों को (विमुमुक्तम्) पापरूपी बन्धनों से छुड़ायें ॥५॥
Connotation: - यजमान कर्मयोगी और ज्ञानयोगी विद्वानों से यह प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! आप हमारे यज्ञों में आकर हमको कर्मयोग तथा ज्ञानयोग का उपदेश करें, ताकि हम उद्योगी तथा ज्ञानी बन कर निरुद्योगिता और अज्ञानरूपी पापों से छुट कर मोक्ष फल के भागी बनें ॥५॥
Reads times

ARYAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रवायू) “इदङ्करणादित्याग्रयणः” ॥ नि० १०,८,९ ॥ अर्थात् सर्वकर्मसु व्यापकः “वाति सर्वं जानातीति वायुः”, हे कर्मयोगिनः ज्ञानयोगिनः विद्वांसः ! (अर्वाक्) अस्मदभिमुखं (सरथम्) स्वज्ञानयोगकर्मयोगमार्गमभिलक्ष्य (यातम्) आगच्छन्तु (स्पार्हवीराः) भवन्तः सर्वैरभिलषणीया अतः (नियुवाना) उपदेशे नियुक्ताः (नियुतः) यश्च स्वयोगमार्गस्तमुपदिशत (वाम्) युष्मभ्यमेव (मध्वः) मधुरः (इदम्) अयं (अग्रम्) मुख्यः सारभूतः उपह्रियते तं गृह्णीत (अथ) अन्यच्च (प्रीणाना) प्रसन्नाः सन्तः (अस्मे) अस्मान् (वि, मुमुक्तम्) बन्धनान्मोचयत ॥५॥