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पीवो॑अन्नाँ रयि॒वृध॑: सुमे॒धाः श्वे॒तः सि॑षक्ति नि॒युता॑मभि॒श्रीः । ते वा॒यवे॒ सम॑नसो॒ वि त॑स्थु॒र्विश्वेन्नर॑: स्वप॒त्यानि॑ चक्रुः ॥

English Transliteration

pīvoannām̐ rayivṛdhaḥ sumedhāḥ śvetaḥ siṣakti niyutām abhiśrīḥ | te vāyave samanaso vi tasthur viśven naraḥ svapatyāni cakruḥ ||

Pad Path

पीवः॑ऽअन्नान् । र॒यि॒ऽवृधः॑ । सु॒ऽमे॒धाः । श्वे॒तः । सि॒ष॒क्ति॒ । नि॒ऽयुता॑म् । अ॒भि॒ऽश्रीः । ते । वा॒यवे॑ । सऽम॑नसः । वि । त॒स्थुः॒ । विश्वा॑ । इत् । नरः॑ । सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑ । च॒क्रुः॒ ॥ ७.९१.३

Rigveda » Mandal:7» Sukta:91» Mantra:3 | Ashtak:5» Adhyay:6» Varga:13» Mantra:3 | Mandal:7» Anuvak:6» Mantra:3


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (सुमेधाः) ज्ञानयोगी पुरुष (पीवोऽन्नान्) पुष्ट से पुष्ट अन्नों को लाभ करते हैं (रयिवृधः) और ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं (श्वेतः) और उत्तम कर्मों को (सिसक्ति) सेवन करते हैं, (अभिश्रीः) शोभा (नियुतां) जो मनुष्य के लिये नियुक्त की गई है, उसको प्राप्त होते हैं तथा (ते, समनसः) वे वशीकृत मनवाले (वायवे) विज्ञान के लिये अर्थात् ज्ञानयोग के लिये (तस्थुः) स्थिर होते हैं, (विश्वेन्नरः) ऐसे सम्पूर्ण मनुष्य (स्वपत्यानि) शुभ कर्मों को (चक्रुः) करते हैं ॥३॥
Connotation: - जो पुरुष ज्ञानयोगी बन कर बुद्धिरूपी श्री को उत्पन्न करते हैं, वे संयमी पुरुष ही कर्मयोगी बन सकते हैं, अन्य नहीं ॥ तात्पर्य यह है कि जिन पुरुषों का अपना मन वशीभूत है, वे ही पुरुष कर्मयोग और ज्ञानयोग के अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं, इस भाव को उपनिषदों में इस प्रकार वर्णन किया है कि−“यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते” ॥कठ० ३।८॥ जो पुरुष समनस्क वशीकृत मनवाला होता है, वही विज्ञानवान् ज्ञानयोगी और शुभ कर्मों द्वारा पवित्र अर्थात् कर्मयोगी बन सकता है, फिर वह प्राकृत संसार में नहीं आता ॥ समनस्क, समनस और वशीकृतमन, संयमी ये सब एकार्थवाची शब्द हैं और इनका तात्पर्य कर्मयोग और ज्ञानयोग में है। इस प्रकार उक्त मन्त्र में कर्मयोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया है ॥३॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (सुमेधाः) ज्ञानयोगिनो नरः (पीवः, अन्नान्) पुष्टतराण्यन्नानि लभन्ते (रयिवृधः) ऐश्वर्यसम्पन्नाश्च भवन्ति (श्वेताः) सुकर्माणि च (सिसक्ति) सेवन्ते (अभि, श्रीः) शोभा (नियुताम्) या नरेषु नियुक्ता तां प्राप्नुवन्ति, तथा (ते, समनसः) ते स्वायत्तीकृतमानसाः (वायवे) विज्ञानाय (तस्थुः) सन्तिष्ठन्ते (विश्वा, इत्, नरः) इत्थं सर्वे नराः (स्वपत्यानि) शुभकर्माणि (चक्रुः) कुर्वन्ति ॥३॥