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स॒म्राळ॒न्यः स्व॒राळ॒न्य उ॑च्यते वां म॒हान्ता॒विन्द्रा॒वरु॑णा म॒हाव॑सू । विश्वे॑ दे॒वास॑: पर॒मे व्यो॑मनि॒ सं वा॒मोजो॑ वृषणा॒ सं बलं॑ दधुः ॥

English Transliteration

samrāḻ anyaḥ svarāḻ anya ucyate vām mahāntāv indrāvaruṇā mahāvasū | viśve devāsaḥ parame vyomani saṁ vām ojo vṛṣaṇā sam balaṁ dadhuḥ ||

Pad Path

स॒म्ऽराट् । अ॒न्यः । स्व॒ऽराट् । अ॒न्यः । उ॒च्य॒ते॒ । वा॒म् । म॒हान्तौ॑ । इन्द्रा॒वरु॑णा । म॒हाव॑सू॒ इति॑ म॒हाऽव॑सू । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मनि । सम् । वा॒म् । ओजः॑ । वृ॒ष॒णा॒ । सम् । बल॑म् । द॒धुः॒ ॥ ७.८२.२

Rigveda » Mandal:7» Sukta:82» Mantra:2 | Ashtak:5» Adhyay:6» Varga:2» Mantra:2 | Mandal:7» Anuvak:5» Mantra:2


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - हे राजपुरुषो ! तुम (अन्यः) एक को (सम्राट्) सम्राट् (अन्यः, स्वराट्)  एक को स्वराट् बनाओ (महान्तौ) हे महानुभाव ! (इन्द्रा वरुणा) अध्यापक तथा उपदेशको ! (वां) तुम्हें (उच्यते) यह उपदेश किया जाता है कि (वां) तुम (विश्वे, देवासः) सम्पूर्ण विद्वान् (ओजः) अपनी सामर्थ्य से (परमे, व्योमनि) इस विस्तृत आकाशमण्डल में (सं) उत्तमोत्तम (महावसू) बड़े धनों के स्वामी होओ और (वृषणा) आप सब लोग मिलकर (सं) सर्वोपरि (बलं, दधुः) बल को धारण करो ॥२॥
Connotation: - इस मन्त्र में परमात्मा ने राजधर्म के संगठन का उपदेश किया है कि हे राजकीय पुरुषो ! तुम अपने में से एक को सम्राट्=प्रजाधीश और एक को स्वराट् बनाओ, क्योंकि जब तक उपर्युक्त दोनों शक्तियें अपने- अपने कार्यों को विधिवत् नहीं करतीं, तब तक प्रजा में शान्ति का भाव उत्पन्न नहीं होता, न प्रजागण अपने अपने धर्मों का यथावत् पालन कर सकते हैं। “सम्यग् राजत इति सम्राट्”=जो अपने कार्यों में स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय करे, उसका नाम “स्वराट्” अर्थात् प्रजातन्त्र का नाम “स्वराट्” है, जो स्वतन्त्रतापूर्वक अपने लिए सुख-दुःख का विचार कर सके। इस प्रकार सम्राट् और स्वराट् जब परस्पर एक-दूसरे के सहायक हों, तभी दोनों बलों की सदैव वृद्धि होती है। हे अध्यापक तथा उपदेशको ! तुम अपने उपदेशों द्वारा दोनों बलों की वृद्धि सदैव करते रहो, जिससे राजा और प्रजा में द्वेष उत्पन्न होकर अशान्ति न हो। तुम मिलकर सर्वोपरि बल धारण करो और तुम्हारा ऐश्वर्य्य सम्पूर्ण नभोमण्डल में व्याप्त हो ॥२॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - हे राजपुरुषाः ! यूयम् (अन्यः) एकं (सम्राट्) सम्राजम् (अन्यः, स्वराट्) अन्यं स्वराजं विधत्त (महान्तौ) भो महानुभावौ ! (मित्रावरुणा) अध्यापकोपदेशकौ (वाम्) युवभ्यं (उच्यते) वक्ष्यमाणमुपदिश्यते (वाम्) युवां (विश्वे देवासः) सकलविद्वद्भिः सार्धं (ओजः) स्वशक्त्या (परमे व्योमनि) अस्मिन् महत्याकाशे (सम्) सुष्ठु (महावसू) अतिधनिकौ भवेतां (वृषणा) सर्वे भवन्तः समेत्य (सम्) सर्वातिरिक्तं (बलम्, दधुः) बलं दधतुः ॥२॥