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ए॒षा ने॒त्री राध॑सः सू॒नृता॑नामु॒षा उ॒च्छन्ती॑ रिभ्यत॒॒ वसि॑ष्ठैः । दी॒र्घ॒श्रुतं॑ र॒यिम॒स्मे दधा॑ना यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

English Transliteration

eṣā netrī rādhasaḥ sūnṛtānām uṣā ucchantī ribhyate vasiṣṭhaiḥ | dīrghaśrutaṁ rayim asme dadhānā yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

Pad Path

ए॒षा । ने॒त्री । राध॑सः । सू॒नृता॑नाम् । उ॒षाः । उ॒च्छन्ती॑ । रि॒भ्य॒ते॒ । वसि॑ष्ठैः । दी॒र्घ॒ऽश्रुत॑म् । र॒यिम् । अ॒स्मे इति॑ । दधा॑ना । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.७६.७

Rigveda » Mandal:7» Sukta:76» Mantra:7 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:23» Mantra:7 | Mandal:7» Anuvak:5» Mantra:7


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ARYAMUNI

अब उषःकाल में स्वस्तिवाचनों द्वारा परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

Word-Meaning: - (एषा उषाः) यह उषःकाल (राधसः नेत्री) आराधनशील विद्वानों के मार्ग को (सूनृतानां) वेदवाणियों द्वारा (उच्छन्ती) प्रकाश करनेवाला (वशिष्ठैः रिभ्यते) सर्वोपरिगुणसम्पन्न विद्वानों से स्तुतियोग्य है, इसी काल में (दीर्घश्रुतं) चिरकालीन सर्वज्ञाता परमात्मा (अस्मे) हमें (रयिं दधाना) धन प्राप्त कराये और (नः) हमारे धन को (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनों से (सदा) सदा (पात) रक्षा करें ॥७॥
Connotation: - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे विचारशील विद्वानों ! तुम उषःकाल के अपने कर्तव्य कर्मों से निवृत्त होकर स्वस्तिवाचनों से प्रार्थना करो कि आप हमें और हमारे यजमानों को ऐश्वर्य्यसम्पन्न करें और आपका दिया हुआ ऐश्वर्य्य पवित्र हो ॥ इस मन्त्र में जो उषादेवी को विद्वानों की नेत्री तथा वेदवाणियों की प्रकाशिका वर्णन किया गया है, वह उपचार से है, मुख्य नहीं। अर्थात् उषा ऐसा काल है कि परमालस्यग्रस्त मनुष्यों को भी उद्योगी बना देता और ईश्वरविमुखमनों में भी ईश्वरीय ज्योति का संचार करता है, इसलिये दिव्यरूप से वर्णन किया गया है, वास्तव में उषःकाल जड़ होने से किसी का प्रेरक वा स्वामी नहीं, सबका स्वामी एकमात्र परमात्मा है, उससे भिन्न कोई नहीं ॥७॥ यह ७६वाँ सूक्त और २३वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

अथोषःकाले स्वस्तिवाचनैः परमात्मा प्रार्थ्यते।

Word-Meaning: - (एषा उषाः) अयमुषःकालः (राधसः नेत्री) आराधकानां विदुषां पथां (सूनृतानाम्) वेदवाग्भिः (उच्छन्ती) प्रकाशयिता (वसिष्ठैः रिभ्यते) सर्वातिक्रान्तगुण-सम्पन्नैर्विद्वद्भिः स्तवनीयोऽस्ति, अस्मिन्नेवोषःकाले (दीर्घश्रुतम्) चिरन्तनः सर्वज्ञाता परमात्मा (अस्मे) नः (रयिम् दधाना) धनं लम्भयतु, तथा (नः) अस्माकं धनं (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनेन (सदा) शश्वत् (पात) रक्षन्तु ॥७॥ इति षट्सप्ततितमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥