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नू मे॒ हव॒मा शृ॑णुतं युवाना यासि॒ष्टं व॒र्तिर॑श्विना॒विरा॑वत् । ध॒त्तं रत्ना॑नि॒ जर॑तं च सू॒रीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

English Transliteration

nū me havam ā śṛṇutaṁ yuvānā yāsiṣṭaṁ vartir aśvināv irāvat | dhattaṁ ratnāni jarataṁ ca sūrīn yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

Pad Path

नु । मे॒ । हव॑म् । आ । शृ॒णु॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । या॒सि॒ष्टम् । व॒र्तिः । अ॒श्वि॒नौ॑ । इरा॑ऽवत् । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । जर॑तम् । च॒ । सू॒रीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.६७.१०

Rigveda » Mandal:7» Sukta:67» Mantra:10 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:7» Anuvak:4» Mantra:10


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ARYAMUNI

अब मनुष्य का कर्त्तव्य वर्णन करते हैं।

Word-Meaning: - (नु) निश्चय करके (मे) मेरे (हवं) इस कल्याणदायक वचन को (आ) भले प्रकार (शृणुतं) सुनो, (युवाना) हे युवा पुरुषो ! तुम (अश्विनौ) गुरु शिष्य दोनों (इरावत्) हवनयुक्त (वर्तिः) स्थान को (यासिष्टं) प्राप्त होओ (च) और (सूरीन्) तेजस्वी विद्वानों को (धत्तं, रत्नानि) रत्नादि उत्तम पदार्थों को धारण कराओ, ताकि वह (जरतं) वृद्धावस्था को प्राप्त (यूयं) तुमको (स्वस्तिभिः) मङ्गल वाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें और तुम प्रार्थना करो कि (नः) हमको सदा शुभ आशीर्वाद दो ॥१०॥
Connotation: - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे युवापुरुषों ! तुम्हारा मुख्य कर्तव्य यह है कि तुम गुरु-शिष्य दोनों मिलकर यज्ञरूप अग्न्यागारों अथवा कलाकौशलरूप अग्निगृहों में जहाँ अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रादिकों की विद्या सिखलाई जाती है, जाओ और वहाँ जाकर आध्यात्मिक विद्या के विद्वानों तथा शिल्पविद्याविशारद देवों को प्रसन्न करो अर्थात् उनको विविध प्रकार का धन प्रदान करो, ताकि उनकी प्रसन्नता से तुम्हारा सदा के लिये कल्याण हो और तुम सदा उनसे नम्रभाव से वर्तो, ताकि वे तुम्हारा शुभचिन्तन करते रहें ॥तात्पर्य्य यह है कि गुरु-शिष्य दोनों मिलकर व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दोनों प्रकार की उन्नति करें। जहाँ गुरु-शिष्य दोनों अध्ययनाध्यापन द्वारा अपनी उन्नति नहीं करते, वहाँ कदापि कल्याण नहीं होता। कल्याण की कामनावाले गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष, धनाढ्य-निर्धन और पण्डित तथा मूर्ख, ये सब जोड़े जब तक एक अर्थ में नियुक्त होकर अपनी उन्नति नहीं करते, तब तक इनका कदापि कल्याण नहीं हो सकता। इसी भाव को कठोपनिषद् में इस प्रकार वर्णन किया है कि–सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ कठ० ६।१९॥ अर्थ−हे परमात्मन् ! आप हम दोनों की एक साथ रक्षा और पालन कीजिये, हम दोनों को शारीरिक और आत्मिक बल दें, हमारा स्वाध्याय तेजवाला हो, हम किसी के साथ अथवा आपस में द्वेष न करें और हम दोनों विद्याविशारद होकर सुखपूर्वक रहें और आप दोनों को संसार के शासन का बल दें, यह आप से प्रार्थना है ॥१०॥ यह ६७ वाँ सूक्त और १३ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

अथ मनुष्यस्य कर्त्तव्यं कथ्यते।

Word-Meaning: - (नू) निश्चयेन (मे) मम (हवं) कल्याणदायकं वचनं (शृणुतं) शृणुतं (युवाना) हे युवावस्थासम्पन्नौ (अश्विनौ) गुरुशिष्यौ, युवाम् (इरावत्) हवनीयं (वर्तिः) गृहम् (यासिष्टं) आगच्छतं (च) किञ्च (सूरीन्) तेजस्विनो विदुषो धनिनः कुरुतं (रत्नानि, धत्तं) रत्नानि दत्तम्, किञ्च (जरतं) वर्धयतं (यूयं) विद्वांसः (स्वस्तिभिः) कल्याणकारकैः वचोभिः (सदा) सर्वदैव (नः) अस्मान् (पात) रक्षत ॥१०॥ इति सप्तषष्टितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥