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शंसा॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ शुष्मो॒ रोद॑सी बद्बधे महि॒त्वा । अय॒न्मासा॒ अय॑ज्वनाम॒वीरा॒: प्र य॒ज्ञम॑न्मा वृ॒जनं॑ तिराते ॥

English Transliteration

śaṁsā mitrasya varuṇasya dhāma śuṣmo rodasī badbadhe mahitvā | ayan māsā ayajvanām avīrāḥ pra yajñamanmā vṛjanaṁ tirāte ||

Pad Path

शंसा॑ । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । शुष्मः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ब॒द्ब॒धे॒ । म॒हि॒ऽत्वा । अय॑न् । मासाः॑ । अय॑ज्वनाम् । अ॒वीराः॑ । प्र । य॒ज्ञऽम॑न्मा । वृ॒जन॑म् । ति॒रा॒ते॒ ॥ ७.६१.४

Rigveda » Mandal:7» Sukta:61» Mantra:4 | Ashtak:5» Adhyay:5» Varga:3» Mantra:4 | Mandal:7» Anuvak:4» Mantra:4


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ARYAMUNI

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! तुम (मित्रस्य, वरुणस्य, धाम) अध्यापक तथा उपदेशकों के पदों को (शंस) प्रशंसित करो (शुष्मः) जिनका बल (रोदसी) द्युलोक तथा पृथिवीलोक में (महित्वा) महत्त्व के लिए (बद्बधे) संसार की मर्य्यादा बांधे (अयज्वनाम्) अयज्ञशील−अकर्मी (अवीराः) वीरसन्तानों से रहित होकर (मासाः) दिन (अयन्) व्यतीत करे और (प्र यज्ञमन्मा) विशेषता से यज्ञशील सत्कर्मी पुरुष (वृजनम्) सब विपत्तियों से मुक्त होकर (तिराते) जगत् का उद्धार करें ॥४॥
Connotation: - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! संसार में सबसे उच्च पद अध्यापक तथा उपदेशकों का है, तुम लोग इनके पद की रक्षा के लिए यत्नवान् होओ, ताकि इनका बल बढ़कर संसार के सब अज्ञानादि पापों का नाशक हो और संसार मर्यादा में स्थिर रहे ॥ तात्पर्य्य यह है कि संसार में सब पापों तथा अवनतियों का मूल कारण एकमात्र अज्ञान ही है, इसलिए तुमको सबसे पहले अज्ञान की जड़ काटने के लिए अध्यापक तथा उपदेशक बढ़ाने चाहियें, क्योंकि जिस देश में उपदेशक और अध्यापकों की बलवृद्धि नहीं होती, उस देश में अज्ञान की जड़ भी नहीं कट सकती प्रत्युत अज्ञान की सन्तति बढ़कर अनैश्वर्य और दारिद्र्य सर्वत्र फैल जाता है, इसी दारिद्र्य की निवृत्ति के लिए परमात्मा ने पृथ्वी तथा अन्तरिक्षलोक में अव्याहतगति अर्थात् बिना रोक-टोक से गतिशील होने के लिए अध्यापक तथा उपदेशकों के कर्त्तव्यों का वर्णन किया है ॥ इसी भाव से कृष्णजी ने “काम एष क्रोध एषः” गी. ३।३७ में अज्ञान की जड़ काटने का उपदेश करते हुए बलपूर्वक कहा है कि जब तक ज्ञानरूप शस्त्र से अज्ञान का छेदन नहीं किया जाता, तब तक संसार का कल्याण कदापि नहीं हो सकता, ज्ञात होता है कि यह भाव कृष्णजी ने इसी स्थल के वेदमन्त्रों से लिया है ॥४॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - हे मनुष्याः ! भवन्तः (मित्रस्य) अध्यापकस्य (वरुणस्य) उपदेशकस्य च (धाम) पदं (शंस) प्रशंसन्तु तयोरध्यापकोपदेशकयोः (शुष्मः) बलं (रोदसी) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (महित्वा) महत्त्वाय (बद्बधे) संसारमर्यादां बध्नातु (अयज्वनाम्) अयज्ञानाम्  अकर्मणां सन्तानाः (अवीराः) वीरत्वधर्मरहिताः भवेयुः, अन्यच्च तेषां (मासाः) समयाः (अयन्) वीरसन्तानरहिता भवेयुः (प्र यज्ञमन्मा) यज्वानः (वृजनम्) बलं (तिराते) वर्द्धयन्तु ॥४॥
Connotation: - परमात्मोपदिशति−भो जनाः ! अस्मिन् जगति अध्यापकानामुपदेशकानाञ्च सर्वोपरि पदं वर्त्तते, अतो भवद्भिः तत्पदस्य सर्वथैव रक्षणं कार्य्यम्, अन्यच्च अयज्ञानामकर्मणां निष्फल एव सन्तानो याति, यतश्च ईश्वराज्ञानुयायिन ईश्वरनियमं पालयन्ति, अतएव ते सुखिनः, ये ईश्वरीयनियमान् न पालयन्ति तेषां मासा दिनान्यापि दुःखेन यान्ति, इत्यभिप्रायेणोक्तं तेषां मासा अवीरा एव अयन् अगच्छन्नित्यर्थः ॥४॥ अस्येदमेव तात्पर्यं यत्सर्वेषां पापानां मूलकारणमेकमज्ञानमेव, अतः पूर्वं भवद्भिः अध्यापकोपदेशकयोरेव वृद्धिः कर्तव्या, कुतः यतश्च यस्मिन्देशे अध्यापकानां उपदेशकानां च बलं न वर्द्धते तस्मिन्देशे अज्ञानस्य मूलोच्छेदोऽपि न भवति प्रत्युत अज्ञानप्राबल्येन सर्वत्रानैश्वर्य्यस्य दारिद्र्यस्य च प्रचारो भवति, अस्य निवृत्त्यर्थं परमात्मना अध्यापकोपदेशका-श्चाव्याहतगतय उत्पादिताः ॥ इत्यभिप्रायेणैव "काम एष क्रोध एष" गी० ३।३७ अत्र भगवता कृष्णेन अज्ञानमूलोच्छेदनमेवोपदिष्टम्, कुतः यतश्च अज्ञानमूलोच्छेदनं विना कदाचिदपि जगति कल्याणं नोत्पद्यते, सम्भाव्यते चेदं यद्भगवता कृष्णेन अयं भावः अस्मादेव मन्त्राद् गृहीतः ॥४॥