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तं नो॑ अग्ने म॒घव॑द्भ्यः पुरु॒क्षुं र॒यिं नि वाजं॒ श्रुत्यं॑ युवस्व। वैश्वा॑नर॒ महि॑ नः॒ शर्म॑ यच्छ रु॒द्रेभि॑रग्ने॒ वसु॑भिः स॒जोषाः॑ ॥९॥

English Transliteration

taṁ no agne maghavadbhyaḥ purukṣuṁ rayiṁ ni vājaṁ śrutyaṁ yuvasva | vaiśvānara mahi naḥ śarma yaccha rudrebhir agne vasubhiḥ sajoṣāḥ ||

Pad Path

तम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। म॒घव॑त्ऽभ्यः। पु॒रु॒ऽक्षुम्। र॒यिम्। नि। वाज॑म्। श्रुत्य॑म्। यु॒व॒स्व॒। वैश्वा॑नर। महि॑। नः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। रु॒द्रेभिः॑। अ॒ग्ने॒। वसु॑ऽभिः। स॒ऽजोषाः॑ ॥९॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:5» Mantra:9 | Ashtak:5» Adhyay:2» Varga:8» Mantra:4 | Mandal:7» Anuvak:1» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह ईश्वर क्या क्या देता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (वैश्वानर) सब को अपने-अपने कार्य में लगानेवाले (अग्ने) अग्नि के तुल्य प्रकाशित जगदीश्वर आप (मघवद्भ्यः) बहुत धनयुक्त हमारे लिये (पुरुक्षुम्) बहुत अन्नादि (तम्) उस (श्रुत्यम्) सुनने योग्य (रयिम्) धन को और (वाजम्) विज्ञान को (नि, युवस्व) नित्य संयुक्त करो। हे (अग्ने) प्राण के प्राण ! (वसुभिः) पृथिवी आदि तथा (रुद्रेभिः) प्राणों के साथ (सजोषाः) व्याप्त और प्रसन्न हुए आप (नः) हमारे लिये (महि) बड़े (शर्म) सुख वा घर को (यच्छ) दीजिये ॥९॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जो परमात्मा धन ऐश्वर्य्य और प्रशंसा के योग्य विज्ञान और राज्य को पुरुषार्थियों के लिये देता है, उसी की प्रीतिपूर्वक निरन्तर उपासना किया करो ॥९॥ इस सूक्त में ईश्वर के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह पाँचवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स ईश्वर किं किं ददातीत्याह ॥

Anvay:

हे वैश्वानराग्ने त्वं मघवद्भ्यो नोऽस्मभ्यं पुरुक्षुं तं श्रुत्यं रयिं वाजं नि युवस्व। हे अग्ने ! रुद्रेभिर्वसुभिः सजोषास्त्वं नो महि शर्म यच्छ ॥९॥

Word-Meaning: - (तम्) (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान जगदीश्वर (मघवद्भ्यः) बहुधनयुक्तेभ्यो धनेशेभ्यः (पुरुक्षुम्) बह्वन्नादिकम् (रयिम्) धनम् (नि) नित्यम् (वाजम्) विज्ञानम् (श्रुत्यम्) श्रोतुमर्हम् (युवस्व) संयोजय (वैश्वानर) (महि) महत् (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखं गृहं वा (यच्छ) देहि (रुद्रेभिः) प्राणैः (अग्ने) प्राणस्य प्राण (वसुभिः) पृथिव्यादिभिस्सह (सजोषाः) व्याप्तः सन् प्रीतः प्रसन्नः ॥९॥
Connotation: - हे मनुष्या ! यो धनैश्वर्यप्रशंसनीयविज्ञानं राज्यं च पुरुषार्थिभ्यः प्रयच्छति तमेव प्रीत्या सततमुपाध्वमिति ॥९॥ अत्रेश्वरकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो! जो परमात्मा पुरुषार्थी लोकांसाठी धन व ऐश्वर्य तसेच प्रशंसायोग्य विज्ञान व राज्य देतो त्याचीच प्रीतिपूर्वक निरंतर सेवा करा. ॥ ९ ॥