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अ॒भि यं दे॒वी निर्ऋ॑तिश्चि॒दीशे॒ नक्ष॑न्त॒ इन्द्रं॑ श॒रदः॑ सु॒पृक्षः॑। उप॑ त्रिब॒न्धुर्ज॒रद॑ष्टिमे॒त्यस्व॑वेशं॒ यं कृ॒णव॑न्त॒ मर्ताः॑ ॥७॥

English Transliteration

abhi yaṁ devī nirṛtiś cid īśe nakṣanta indraṁ śaradaḥ supṛkṣaḥ | upa tribandhur jaradaṣṭim ety asvaveśaṁ yaṁ kṛṇavanta martāḥ ||

Pad Path

अ॒भि। यम्। दे॒वी। निःऽऋ॑तिः। चि॒त्। ईशे॑। नक्ष॑न्ते। इन्द्र॑म्। श॒रदः॑। सु॒ऽपृक्षः॑। उप॑। त्रि॒ऽब॒न्धुः॒। ज॒रत्ऽअ॑ष्टिम्। ए॒ति॒। अस्व॑वेशम्। यम्। कृ॒णव॑न्त। मर्ताः॑ ॥७॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:37» Mantra:7 | Ashtak:5» Adhyay:4» Varga:4» Mantra:2 | Mandal:7» Anuvak:3» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे (यम्) जिस पदार्थ को (निर्ऋतिः) भूमि (चित्) वैसे (देवी) विदुषी स्त्री उसको (अभि, एति) सब ओर से प्राप्त होती वा (सुपृक्षः) जो सुन्दर अन्नवाला (त्रिबन्धुः) तीन जनों का बन्धु जिस (जरदिष्टम्) वृद्धावस्था को (ईशे) ऐश्वर्ययुक्त करता है जिस (इन्द्रम्) सूर्य को (शरदः) शरद् आदि ऋतु (नक्षन्ते) व्याप्त होती हैं जिस (अस्ववेशम्) अपने रूप को न धारण किये हुए का (मर्ताः) मनुष्य (उप, कृणवन्त) उपकार करते हैं, उन सब का हम भी उपकार करें ॥७॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! तुम जैसे शरीर वाणी और मन से उत्पन्न हुए तीन प्रकार के सुख को प्राप्त विद्वान् जन हृदय से चाही हुई भार्या को प्राप्त होता है, स्त्री भी प्रिय पति को प्राप्त होकर आनन्दित होती वा जैसे ऋतु अपने-अपने समय को प्राप्त होकर सबको आनन्दित करती वा जैसे स्वभाव से ही कौमार आदि अवस्था आती हैं, वैसे ही परस्पर में प्रीति कर प्रयत्न करो ॥७॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

Anvay:

हे मनुष्याः ! [यथा]यं निर्ऋतिश्चिदिव देव्यभ्येति यस्सुपृक्षस्त्रिबन्धुर्यां जरदष्टिमीशे यमिन्द्रं शरदो नक्षन्ते यमस्ववेशं मर्ता उप कृणवन्त तान् सर्वान् वयमुप कुर्याम ॥७॥

Word-Meaning: - (अभि) (यम्) (देवी) विदुषी (निर्ऋतिः) भूमिः। निर्ऋतीति पृथिवीनाम। (निघं०१.१)। (चित्) इव (ईशे) ईष्टे। अत्र तलोप आत्मनेपदेष्विति तकारलोपः। (नक्षन्ते) व्याप्नुवन्ति (इन्द्रम्) सूर्यम् (शरदः) शरदाद्या ऋतवः (सुपृक्षः) शोभनं पृक्षोऽन्तं यस्य सः (उप) (त्रिबन्धुः) त्रयाणां बन्धुः (जरदष्टिम्) वृद्धावस्थाम् (एति) प्राप्नोति (अस्ववेशम्) न स्वकीयो वेशो यस्य तम् (यम्) (कृणवन्त) कुर्वन्ति (मर्ताः) मनुष्याः ॥७॥
Connotation: - हे मनुष्या ! यूयं यथा शरीरवाङ्मनोजं त्रिविधं सुखं प्राप्तो विद्वान् हृद्यां भार्यां प्राप्नोति स्त्री च प्रियं पतिं प्राप्य मोदते यथर्तवः स्वं स्वं समयं प्राप्य सर्वानानन्दयन्ति यथा स्वभावेनैव कौमाराद्या अवस्था आगच्छन्ति तथैव परस्परस्मिन् प्रीतिं कृत्वा प्रयतेत ॥७॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो ! जसे शरीर, वाणी व मनाने उत्पन्न झालेले तीन प्रकारचे सुख प्राप्त झालेला विद्वान हृद्य प्रिय भार्या प्राप्त करतो व स्त्रीही प्रिय पती प्राप्त करून आनंदित होते किंवा जसे ऋतू समयानुसार सर्वांना आनंदित करतात किंवा कौमार्यावस्था स्वभावतः प्राप्त होते तसेच सहजभावाने परस्पर प्रीती करण्याचा प्रयत्न करा. ॥ ७ ॥