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नू इ॑न्द्र रा॒ये वरि॑वस्कृधी न॒ आ ते॒ मनो॑ ववृत्याम म॒घाय॑। गोम॒दश्वा॑व॒द्रथ॑व॒द्व्यन्तो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

English Transliteration

nū indra rāye varivas kṛdhī na ā te mano vavṛtyāma maghāya | gomad aśvāvad rathavad vyanto yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

Pad Path

नु। इ॒न्द्र॒। रा॒ये। वरि॑वः। कृ॒धि॒। नः॒। आ। ते॒। मनः॑। व॒वृ॒त्या॒म॒। म॒घाय॑। गोऽम॑त्। अश्व॑ऽवत्। रथ॑ऽवत्। व्यन्तः॑। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥५॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:27» Mantra:5 | Ashtak:5» Adhyay:3» Varga:11» Mantra:5 | Mandal:7» Anuvak:2» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर राजा प्रजाजन परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) धन की उन्नति के लिये प्रेरणा देनेवाले ! आप (राये) धन के लिये (नः) हमारी (वरिवः) सेवा (कृधि) करो जो (ते) आप का (मनः) चित् है उसको (मघाय) धन के लिये हम लोग (नु) शीघ्र (आ, ववृत्याम) सब ओर से वर्तें (गोमत्) बहुत गो आदि वा (अश्वावत्) बहुत घोड़ों से युक्त वा (रथवत्) प्रशंसित रथ आदि युक्त धन को (व्यन्तः) प्राप्त होते हुए (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) उत्तम सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥५॥
Connotation: - हे राजा ! जैसे हम लोग आपको राज्य की उन्नति के लिये प्रवृत्त करावें, वैसे हम लोगों को धन प्राप्ति के लिये प्रवृत्त कराओ। सब आप लोग परमैश्वर्य्य को प्राप्त होकर हमारी रक्षा में निरन्तर प्रयत्न करो ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सेनापति, राजा, दाता, रक्षा करनेवाले और प्रवृत्ति करानेवाले के गुणों का और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुना राजप्रजाजनाः परस्परं किं कुर्य्युरित्याह ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! त्वं राये नो वरिवस्कृधि यत्ते मनोऽस्ति तन्मघाय वयं न्वाववृत्याम। गोमदश्वावद् रथवद्व्यन्तो यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

Word-Meaning: - (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (इन्द्र) धनोन्नतये प्रेरक (राये) धनाय (वरिवः) परिचरणम् (कृधि) कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (आ) (ते) तव (मनः) चित्तम् (ववृत्याम) वर्त्तयेम (मघाय) धनाय (गोमत्) बहुगवादियुक्तम् (अश्वावत्) बह्वश्वसहितम् (रथवत्) प्रशस्तरथादियुक्तम् (व्यन्तः) प्राप्नुवन्तः (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥५॥
Connotation: - हे राजन् ! यथा वयं भवन्तं राज्योन्नतये प्रवर्त्तयेम तथा त्वमस्मान् धनप्राप्ये प्रवर्त्तय। सर्वे भवन्तः परमैश्वर्यं प्राप्यास्माकं रक्षणे सततं प्रयतन्तामिति ॥५॥ अत्रेन्द्रसेनेशराजोपदेशकदातृरक्षकप्रवर्त्तकगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सहसङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे राजा ! जसे आम्ही तुला राज्याच्या उन्नतीसाठी प्रवृत्त करतो तसे तू आम्हाला धनप्राप्तीसाठी प्रवृत्त कर. तुम्ही सर्व लोक परम ऐश्वर्य प्राप्त करून आमच्या रक्षणासाठी निरंतर प्रयत्न करा. ॥ ५ ॥