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यदि॑न्द्र॒ पूर्वो॒ अप॑राय॒ शिक्ष॒न्नय॒ज्ज्याया॒न्कनी॑यसो दे॒ष्णम्। अ॒मृत॒ इत्पर्या॑सीत दू॒रमा चि॑त्र॒ चित्र्यं॑ भरा र॒यिं नः॑ ॥७॥

English Transliteration

yad indra pūrvo aparāya śikṣann ayaj jyāyān kanīyaso deṣṇam | amṛta it pary āsīta dūram ā citra citryam bharā rayiṁ naḥ ||

Pad Path

यत्। इ॒न्द्र॒। पूर्वः॑। अप॑राय। शि॒क्ष॒न्। अय॑त्। ज्याया॑न्। कनी॑यसः। दे॒ष्णम्। अ॒मृतः॑। इत्। परि॑। आ॒सी॒त॒। दू॒रम्। आ। चि॒त्र॒। चित्र्य॑म्। भ॒र॒। र॒यिम्। नः॒ ॥७॥

Rigveda » Mandal:7» Sukta:20» Mantra:7 | Ashtak:5» Adhyay:3» Varga:2» Mantra:2 | Mandal:7» Anuvak:2» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वान् अन्य जनों के प्रति कैसे उपकारी हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले (यत्) जो (पूर्वः) प्रथम (अपराय) और के लिये (ज्यायान्) अतीव वृद्ध वा श्रेष्ठ जन (कनीयसः) अत्यन्त कनिष्ठ से (देष्णम्) देने योग्य की (शिक्षन्) शिक्षा अर्थात् विद्या ग्रहण कराता हुआ (अयत्) प्राप्त होता वा हे (चित्र) अद्भुत कर्म करनेवाले ! जो (अमृतः, इत्) नाशरहित ही आत्मा से नित्य योगी (दूरम्) दूर (पर्यासीत) सब ओर से स्थित हो उसके साथ आप (नः) हम लोगों के लिये (चित्र्यम्) अद्भुत-अद्भुत कर्मों में हुए (रयिम्) धन को (आ, भर) अच्छे प्रकार धारण कीजिये ॥७॥
Connotation: - हे राजा ! जो पहिले विद्वान् होकर विद्यार्थियों को शिक्षा देते हैं वा जो ज्येष्ठ कनिष्ठों के प्रति पिता के समान वर्त्ताव रखते हैं वा जो योगी जन परमात्मा को समाधि से अपने आत्मा में अच्छे प्रकार आरोप के औरों को उपदेश देते हैं, उनके लिये तुम शरीर, मन और धन को धारण करो ॥७॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वांसोऽन्यान् प्रति कथमुपकारिणो भवेयुरित्याह ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! यद्यः पूर्वोऽपराय ज्यायान् कनीयसो देष्णं शिक्षन्नयत्। हे चित्र ! योऽमृत इत् आत्मना नित्यो योगी दूरं पर्यासीत तेन सहितस्त्वं नश्चित्र्यं रयिमा भर ॥७॥

Word-Meaning: - (यत्) यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (पूर्वः) (अपराय) अन्यस्मै (शिक्षन्) विद्याग्रहणं कारयन् (अयत्) प्राप्नोति (ज्यायान्) अतिशयेन ज्येष्ठः (कनीयसः) अतिशयेन कनिष्ठात् (देष्णम्) दातुं योग्यम् (अमृतः) नाशरहितः (इत्) एव (परि) सर्वतः (आसीत) (दूरम्) (आ) (चित्र) अद्भुतकर्मकारिन् (चित्र्यम्) चित्रेष्वद्भुतेषु भवम् (भर) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (रयिम्) धनम् (नः) अस्मभ्यम् ॥७॥
Connotation: - हे राजन् ! ये पूर्वं विद्वांसो भूत्वा विद्यार्थिनः शिक्षयन्ति ये ज्येष्ठा कनिष्ठान्प्रति पितृवद्वर्त्तन्ते ये च योगिनः परमात्मानं समाधिनाऽऽत्मनि संस्थाप्य साक्षात्कृत्याऽन्यानुपदिशन्ति तदर्थं त्वं शरीरं मनो धनं च धर ॥७॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे राजा ! जे प्रथम विद्वान बनून विद्यार्थ्यांना शिक्षण देतात किंवा जे ज्येष्ठ व कनिष्ठाबरोबर पित्याप्रमाणे वागतात किंवा जे योगी लोक परमेश्वराला समाधीने आपल्या आत्म्यात साक्षात्कारित करून इतरांना उपदेश देतात त्यांच्यासाठी तन, मन, धन धारण कर. ॥ ७ ॥