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उ॒च्छा दि॑वो दुहितः प्रत्न॒वन्नो॑ भरद्वाज॒वद्वि॑ध॒ते म॑घोनि। सु॒वीरं॑ र॒यिं गृ॑ण॒ते रि॑रीह्युरुगा॒यमधि॑ धेहि॒ श्रवो॑ नः ॥६॥

English Transliteration

ucchā divo duhitaḥ pratnavan no bharadvājavad vidhate maghoni | suvīraṁ rayiṁ gṛṇate rirīhy urugāyam adhi dhehi śravo naḥ ||

Pad Path

उ॒च्छ। दि॒वः॒। दु॒हि॒त॒रिति॑। प्र॒त्न॒ऽवत्। नः॒। भ॒र॒द्वा॒ज॒ऽवत्। वि॒ध॒ते। म॒घो॒नि॒। सु॒ऽवीर॑म्। र॒यिम्। गृ॒ण॒ते। रि॒री॒हि॒। उ॒रु॒ऽगा॒यम्। अधि॑। धे॒हि॒। श्रवः॑। नः॒ ॥६॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:65» Mantra:6 | Ashtak:5» Adhyay:1» Varga:6» Mantra:6 | Mandal:6» Anuvak:6» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह किसके समान क्या करके किसको प्राप्त होती है, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (दिवः) बिजुली की (दुहितः) कन्या के समान वर्त्तमान (मघोनि) परमपूजित धनयुक्त पत्नी ! तू (नः) हम लोगों का (विधते) विधान करनेवाले के लिये (प्रत्नवत्) प्राचीन कारण जिसमें विद्यमान उसके वा (भरद्वाजवत्) कर्णके तुल्य (उच्छा) विवास कराओ अर्थात् एक देश से दूसरे देश में वास कराओ (गृणते) और प्रशंसा करनेवाले तेरे पति के लिये वा (नः) हम लोग जो सम्बन्धी हैं, उनके लिये (उरुगायम्) बहुत अपत्य धन वा गृह जिससे प्राप्त होते हैं उसे और (श्रवः) अन्न वा श्रवण तथा (सुवीरम्) शोभन वीर जिससे उस (रयिम्) धन को (अधि, धेहि) अधिकता से धारण कर और तू मुझ से इस उक्त विषय को (रिरीहि) माँग ॥६॥
Connotation: - हे वीरपुरुष ! जैसे बिजुली का प्रकाश संप्रयोग किया हुआ सत्य ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करता है, वैसे ही शुभ आचरण करनेवाली पत्नी घर का सौभाग्य बढ़ाती है और जैसे आचार्य प्रति समय सुन्दर शिक्षा और विद्या को विद्यार्थियों को ग्रहण कराते हैं, वैसे ही विद्वान् स्त्री पुरुष अपने सन्तानों को विद्या और सुन्दर शिक्षा ग्रहण करावें ॥६॥ इस सूक्त में उषा के तुल्य स्त्रीजनों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंसठवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः सा किंवत् किं कृत्वा किं प्राप्नोतीत्याह ॥

Anvay:

हे दिवो दुहितर्वद्वर्त्तमाने मघोनि पत्नि ! त्वं नो विधते प्रत्नवद्भरद्वाजवदुच्छा विवासय गृणते तव पत्ये नोऽस्मभ्यं सम्बन्धिभ्य उरुगायं श्रवः सुवीरं रयिं चाऽधि धेहि त्वं चास्मदेतद्रिरीहि ॥६॥

Word-Meaning: - (उच्छा) विवासय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवः) विद्युतः (दुहितः) दुहितर्वद्वर्त्तमाने (प्रत्नवत्) प्रत्नं प्राचीनं कारणं विद्यते यस्मिंस्तद्वत् (नः) अस्मान् (भरद्वाजवत्) श्रोत्रवत् (विधते) विधानं कुर्वते (मघोनि) परमपूजितधनयुक्ते (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम् (रयिम्) धनम् (गृणते) प्रशंसकाय (रिरीहि) याचस्व। रिरीहीति याच्ञाकर्मा। (निघं०३.१९) (उरुगायम्) उरूणि गया अपत्यानि धनानि गृहाणि वा यस्मात्तम् (अधि) उपरि (धेहि) (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (नः) अस्मभ्यम् ॥६॥
Connotation: - हे वीर पुरुष ! यथा विद्युद्दीप्तिः सम्प्रयुक्तं सम्यञ्चैश्वर्य्यं जनयति तथैव शुभाचरणा पत्नी गृहसौभाग्यं वर्धयति यथाऽऽचार्याः प्रतिसमयं सुशिक्षां विद्यां च विद्यार्थिनो ग्राहयन्ति तथैव विद्वांसौ स्त्रीपुरुषौ स्वसन्तानानुचितसमये विद्यासुशिक्षे ग्राहयेतामिति ॥६॥ अत्रोषर्वत्स्त्रीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चषष्टितमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे वीर पुरुषा ! जसा विद्युतचा संप्रयोगयुक्त प्रकाश सम्यक् ऐश्वर्य उत्पन्न करतो तशी शुभ आचरण करणारी पत्नी घराचे सौभाग्य वाढविते व जसे आचार्य विद्यार्थ्यांना प्रत्येक वेळी चांगले शिक्षण व विद्या ग्रहण करवितात तसेच विद्वान स्त्री-पुरुषांनी आपल्या संतानांना विद्या व चांगले शिक्षण द्यावे. ॥ ६ ॥