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नू नो॑ र॒यिं र॒थ्यं॑ चर्षणि॒प्रां पु॑रु॒वीरं॑ म॒ह ऋ॒तस्य॑ गो॒पाम्। क्षयं॑ दाता॒जरं॒ येन॒ जना॒न्त्स्पृधो॒ अदे॑वीर॒भि च॒ क्रमा॑म॒ विश॒ आदे॑वीर॒भ्य१॒॑श्नवा॑म ॥१५॥

English Transliteration

nu no rayiṁ rathyaṁ carṣaṇiprām puruvīram maha ṛtasya gopām | kṣayaṁ dātājaraṁ yena janān spṛdho adevīr abhi ca kramāma viśa ādevīr abhy aśnavāma ||

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Pad Path

नु। नः॒। र॒यिम्। र॒थ्य॑म्। च॒र्ष॒णि॒ऽप्राम्। पु॒रु॒ऽवीर॑म्। म॒हः। ऋ॒तस्य॑। गो॒पाम्। क्षय॑म्। दा॒त॒। अ॒जर॑म्। येन॑। जना॑न्। स्पृधः॑। अदे॑वीः। अ॒भि। च॒। क्रमा॑म। विशः॑। आदे॑वीः अ॒भि। अ॒श्नवा॑म ॥१५॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:49» Mantra:15 | Ashtak:4» Adhyay:8» Varga:7» Mantra:5 | Mandal:6» Anuvak:4» Mantra:15


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर दाताओं को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे विद्वानो ! (येन) जिससे (स्पृधः) स्पर्द्धा करते हुए (जनान्) मनुष्यों को तथा (अदेवीः) विद्यारहित (विशः) प्रजाओं को हम लोग (अभि, क्रमाम) अनुक्रम से प्राप्त हों वा (आदेवीः) सब ओर से निरन्तर प्रकाशमान विदुषी (च) और प्रजाओं को हम लोग (अभि, अश्नवाम) सब ओर से प्राप्त हों। तथा (रथ्यम्) विमान आदि रथों में हितरूप (चर्षणिप्राम्) मनुष्यों को व्याप्त होने तथा (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के कारण (क्षयम्) निवास कराने को (अजरम्) हानिरहित अर्थात् पुष्ट (महः) और बड़े (ऋतस्य) सत्य की (गोपाम्) रक्षा करनेवाले (रयिम्) धन को (नः) हम लोगों के लिये (नू) शीघ्र (दात) दीजिये ॥१५॥
Connotation: - वे ही देनेवाले उत्तम हैं, जो धर्म से धनादिकों को सञ्चित कर विद्यादिसद्गुणरूप परोपकार के लिये देते हैं और वही धन है, जिससे विदुषी वा अविदुषी प्रजाएँ अत्यन्त सुख पाय हर्षित हों ॥१५॥ इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद के छठे मण्डल में चतुर्थ अनुवाक, उनचासवाँ सूक्त तथा चतुर्थ अष्टक के आठवें अध्याय में सातवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्दातृभिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

Anvay:

हे विद्वांसो ! येन स्पृधो जनानदेवीर्विशो वयमभि क्रमामादेवीर्विशश्च वयमभ्यश्नवाम तं रथ्यं चर्षणिप्रां पुरुवीरं [क्षयमजरं] मह ऋतस्य गोपां रयिं नो नू दात ॥१५॥

Word-Meaning: - (नू) सद्यः (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) श्रियम् (रथ्यम्) रथेषु विमानादियानेषु हितम् (चर्षणिप्राम्) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति तम् (पुरुवीरम्) पुरवो बहवो वीरा यस्मात्तम् (महः) महतः (ऋतस्य) सत्यस्य (गोपाम्) रक्षकम् (क्षयम्) निवासयितुम् (दात) (अजरम्) हानिरहितम् (येन) (जनान्) मनुष्यान् (स्पृधः) स्पर्द्धमानान् (अदेवीः) विद्यारहिताः (अभि) आभिमुख्ये (च) (क्रमाम) अनुक्रमेण प्राप्नुयाम (विशः) प्रजाः (आदेवीः) समन्ताद्देदीप्यमाना विदुषीः (अभि) (अश्नवाम) अभितः प्राप्नुयाम ॥१५॥
Connotation: - त एव दातार उत्तमा ये धर्मेण धनादिकं सञ्चित्य विद्यादिसद्गुणरूपपरोपकाराय प्रददति तदेव धनं येन विदुष्योऽविदुष्यश्च प्रजा अत्यन्तं सुखं प्राप्य मादेरन्निति ॥१५॥ अत्र विश्वेदेवगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदे षष्ठे मण्डले चतुर्थोऽनुवाक एकोनपञ्चाशत्तमं सूक्तं चतुर्थेऽष्टकेऽष्टमेऽध्याये सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जे धर्माने धन संचित करून विद्या इत्यादी सद्गुण परोपकारासाठी खर्च करतात तेच उदात्त दाते असतात. ज्याच्यामुळे विदुषी किंवा अविदुषी प्रजा अत्यंत सुख प्राप्त करून हर्षित होते तेच धन खरे असते. ॥ १५ ॥