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यत्र॒ शूरा॑सस्त॒न्वो॑ वितन्व॒ते प्रि॒या शर्म॑ पितॄ॒णाम्। अध॑ स्मा यच्छ त॒न्वे॒३॒॑ तने॑ च छ॒र्दिर॒चित्तं॑ या॒वय॒ द्वेषः॑ ॥१२॥

English Transliteration

yatra śūrāsas tanvo vitanvate priyā śarma pitṝṇām | adha smā yaccha tanve tane ca chardir acittaṁ yāvaya dveṣaḥ ||

Pad Path

यत्र॑। शूरा॑सः। त॒न्वः॑। वि॒ऽत॒न्व॒ते। प्रि॒या। शर्म॑। पि॒तॄ॒णाम्। अध॑। स्म॒। य॒च्छ॒। त॒न्वे॑। तने॑। च॒। छ॒र्धिः। अ॒चित्त॑म्। य॒वय॑। द्वेषः॑ ॥१२॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:46» Mantra:12 | Ashtak:4» Adhyay:7» Varga:29» Mantra:2 | Mandal:6» Anuvak:4» Mantra:12


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे ऐश्वर्य्य के बढ़ानेवाले ! (यत्र) जहाँ (शूरासः) युद्ध में चतुर जन (पितॄणाम्) अपने पिता और स्वामियों के (तन्वः) शरीरों को (वितन्वते) बढ़ाते हैं और (प्रिया) प्रिय (शर्म) गृहों को बढ़ाते हैं (अध) इसके अनन्तर (तन्वे) शरीर के लिये (तने) बढ़े हुए व्यवहार में (च) भी (अचित्तम्) चेतनता से रहित (छर्दिः) गृह को आप (यच्छ) ग्रहण करिये वहाँ (द्वेषः) शत्रुओं को (स्म) ही (यावय) पृथक् कराइये ॥१२॥
Connotation: - हे राजन् ! शूरवीर धार्मिक जनों की सत्कारपूर्वक उत्तम प्रकार रक्षा कर शत्रुओं का निवारण कर उत्तम गृहों में पितरों और स्वामी जनों के लिये सुन्दर भोगों को देकर अपने यश का विस्तार करो ॥१२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! यत्र शूरासः पितॄणां तन्वो वितन्वते प्रिया शर्म वितन्वतेऽध तन्वे तने चाऽचित्तं छर्दिस्त्वं यच्छ तत्र द्वेषः स्म यावय ॥१२॥

Word-Meaning: - (यत्र) यस्मिन् युद्धे (शूरासः) (तन्वः) शरीराणि (वितन्वते) (प्रिया) प्रियाणि (शर्म) शर्माणि गृहाणि (पितॄणाम्) जनकानां स्वामिनां वा (अध) (स्मा) एव अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यच्छ) गृहाण (तन्वे) शरीराय (तने) विस्तृते (च) (छर्दिः) गृहम् (अचित्तम्) चेतनरहितम् (यावय) वियोजय। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (द्वेषः) शत्रून् ॥१२॥
Connotation: - हे राजन् ! शूरवीरान् धार्मिकाञ्जनान्त्सत्कारपुरःसरं संरक्ष्य शत्रून्निवार्य्योत्तमेषु गृहेषु स्वामिभ्यः कमनीयान् भोगान् दत्त्वा स्वयशो विस्तृणीहि ॥१२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे राजा ! शूरवीर, धार्मिक लोकांचे सत्कारपूर्वक रक्षण करून शत्रूंचे निवारण करून पितर व स्वामी यांना घरे देऊन उत्तम भोग पदार्थ दे व यश पसरव. ॥ १२ ॥