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स सर्गे॑ण॒ शव॑सा त॒क्तो अत्यै॑र॒प इन्द्रो॑ दक्षिण॒तस्तु॑रा॒षाट्। इ॒त्था सृ॑जा॒ना अन॑पावृ॒दर्थं॑ दि॒वेदि॑वे विविषुरप्रमृ॒ष्यम् ॥५॥

English Transliteration

sa sargeṇa śavasā takto atyair apa indro dakṣiṇatas turāṣāṭ | itthā sṛjānā anapāvṛd arthaṁ dive-dive viviṣur apramṛṣyam ||

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Pad Path

सः। सर्गे॑ण। शव॑सा। त॒क्तः। अत्यैः॑। अ॒पः। इन्द्रः॑। द॒क्षि॒ण॒तः। तु॒रा॒षाट्। इ॒त्था। सृ॒जा॒नाः। अन॑पऽवृत्। अर्थ॑म्। दि॒वेऽदि॑वे। वि॒वि॒षुः॒। अ॒प्र॒ऽमृ॒ष्यम् ॥५॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:32» Mantra:5 | Ashtak:4» Adhyay:7» Varga:4» Mantra:5 | Mandal:6» Anuvak:3» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे राजन् (सः) वह आप जैसे सूर्य्य (अपः) जलों को प्रकट करता है, वैसे (तक्तः) प्रसन्न (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले (अत्यैः) घोड़ों के समान वेगवाले पदार्थों से और (दक्षिणतः) दहिने पसवाड़े से (सर्गेण) उत्तम प्रकार प्रकट करने योग्य (शवसा) बल से (तुराषाट्) हिंसकों को सहनेवाले तथा (अनपावृत्) असत्य को नहीं स्वीकार करनेवाले हुए आप (दिवेदिवे) प्रतिदिन (अप्रमृष्यम्) नहीं विचारने योग्य (अर्थम्) द्रव्य को सब ओर से स्वीकार करिये और जैसे (सृजानाः) उत्तम प्रकार शिक्षित जन कृत्य को (विविषुः) व्याप्त होते हैं (इत्था) इस हेतु से कर्त्तव्य कर्म्मों में प्रविष्ट हूजिये ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अधर्म्म से करने योग्य अनर्थ को नहीं करता है, वह सूर्य्य के सदृश प्रकाशित यशवाला होता है और जैसे सूर्य्य वृष्टि करके सब को हर्षित करता, वैसे ही राजा शुभगुणों की वर्षा करके सब को आनन्दित करे ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और राजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बत्तीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

Anvay:

हे राजन् ! स त्वं यथा सूर्योऽपः सृजति तथा तक्त इन्द्रोऽत्यैर्दक्षिणतः सर्गेण शवसा तुराषाडनपावृत् सन् दिवेदिवेऽप्रमृष्यमर्थमा स्वीकुरु यथा सृजानाः कृत्यं विविषुरित्था कर्त्तव्यानि कर्माणि प्रविश ॥५॥

Word-Meaning: - (सः) (सर्गेण) संसर्जनीयेन (शवसा) बलेन (तक्तः) प्रसन्नः (अत्यैः) अश्वैरिव वेगवद्भिः (अपः) जलानि (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (दक्षिणतः) दक्षिणपार्श्वात् (तुराषाट्) यस्तुरान् हिंसकान्त्सहते (इत्था) अस्माद्धेतोः (सृजानाः) सुशिक्षिताः (अनपावृत्) यो नापवृणोति (अर्थम्) द्रव्यम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (विविषुः) व्याप्नुवन्ति (अप्रमृष्यम्) अविचारणीयम् ॥५॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यो मनुष्योऽधर्मेण कर्त्तव्यमनर्थं न करोति स सूर्य्यवत्प्रकाशितकीर्तिर्भवति यथाऽऽदित्यो वृष्टिं कृत्वा सर्वान् हर्षयति तथैव राजा शुभगुणान् वर्षयित्वा सर्वानानन्दयेदिति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वात्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस अधर्माने कर्तव्यात कसूर करीत नाही त्याची कीर्ती प्रकाशाप्रमाणे पसरते व जसा सूर्य वृष्टी करून सर्वांना आनंदित करतो तसेच राजाने शुभगुण कर्माचा वर्षाव करून सर्वांना आनंदित करावे. ॥ ५ ॥