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स इदस्ते॑व॒ प्रति॑ धादसि॒ष्यञ्छिशी॑त॒ तेजोऽय॑सो॒ न धारा॑म्। चि॒त्रध्र॑जतिरर॒तिर्यो अ॒क्तोर्वेर्न द्रु॒षद्वा॑ रघु॒पत्म॑जंहाः ॥५॥

English Transliteration

sa id asteva prati dhād asiṣyañ chiśīta tejo yaso na dhārām | citradhrajatir aratir yo aktor ver na druṣadvā raghupatmajaṁhāḥ ||

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Pad Path

सः। इत्। अस्ता॑ऽइव। प्रति॑। धा॒त्। अ॒सि॒ष्यन्। शिशी॑त। तेजः॑। अय॑सः। न। धारा॑म्। चि॒त्रऽध्र॑जतिः। अ॒र॒तिः। यः। अ॒क्तोः। वेः। न। द्रु॒ऽसद्वा॑। र॒घु॒पत्म॑ऽजंहाः ॥५॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:3» Mantra:5 | Ashtak:4» Adhyay:5» Varga:3» Mantra:5 | Mandal:6» Anuvak:1» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्य कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (यः) जो (चित्रध्रजतिः) विचित्रगमनवाला (अरतिः) नहीं रमण करता हुआ (अक्तोः) रात्रि से और (वेः) पक्षी से (न) जैसे वैसे (द्रुषद्वा) द्रवीभूत आदि पदार्थों में स्थित होने और (रघुपत्मजंहाः) लघुपतन का त्याग करनेवाला ही प्रकट होता है (सः) वह अग्नि (अस्तेव) फूँकनेवाले के सदृश (असिष्यन्) बन्धन को नहीं प्राप्त होता हुआ (अयसः) सुवर्ण के (न) जैसे (तेजः) तेज को वैसे (धाराम्) वाणी को (प्रति, धात्) धारण करता है, वह (इत्) ही तेज को (शिशीत) तीक्ष्ण करता है ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य अग्नि को बांध और तीक्ष्ण करके युद्ध आदि कार्य्यों में प्रयुक्त करते हैं तो पक्षि के सदृश आकाश में जाने को समर्थ होवें ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यश्चित्रध्रजतिररतिरक्तोर्वेर्न द्रुषद्वा रघुपत्मजंहा इत्तज्जायते। सोऽस्तेवासिष्यन्नयसो न तेजो धारां प्रतिधात् स इत्तेजः शिशीत ॥५॥

Word-Meaning: - (सः) अग्निः (इत्) एव (अस्तेव) प्रक्षेप्ता इव (प्रति) (धात्) दधाति (असिष्यन्) बन्धनमप्राप्नुवन् (शिशीत) तीक्ष्णीकरोति (तेजः) (अयसः) सुवर्णस्य (न) इव (धाराम्) वाचम्। (चित्रध्रजतिः) विचित्रगतिः (अरतिः) अरमणः (यः) (अक्तोः) रात्रेः (वेः) पक्षिणः (न) इव (द्रुषद्वा) यो द्रुषद्द्रवीभूतादिषु पदार्थेषु सीदति (रघुपत्मजंहाः) यो लघुपतनं जहाति सः ॥५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः । यदि मनुष्या अग्निं बद्ध्वा तीक्ष्णीकृत्य युद्धादिकार्येषु प्रयुञ्जते तर्हि पक्षिवदाकाशे गन्तुं शक्नुयुः ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे अग्नीवर नियंत्रण करून तो तीक्ष्ण करून युद्ध इत्यादीमध्ये वापरतात तेव्हा ती पक्ष्याप्रमाणे आकाशात जाण्यास समर्थ असतात. ॥ ५ ॥