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श॒तैर॑पद्रन्प॒णय॑ इ॒न्द्रात्र॒ दशो॑णये क॒वये॒ऽर्कसा॑तौ। व॒धैः शुष्ण॑स्या॒शुष॑स्य मा॒याः पि॒त्वो नारि॑रेची॒त्किं च॒न प्र ॥४॥

English Transliteration

śatair apadran paṇaya indrātra daśoṇaye kavaye rkasātau | vadhaiḥ śuṣṇasyāśuṣasya māyāḥ pitvo nārirecīt kiṁ cana pra ||

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Pad Path

श॒तैः। अ॒प॒द्र॒न्। प॒णयः॑। इ॒न्द्र॒। अत्र॑। दश॑ऽओणये। क॒वये॑। अ॒र्कऽसा॑तौ। व॒धैः। शुष्ण॑स्य। अ॒शुष॑स्य। मा॒याः। पि॒त्वः। न। अ॒रि॒रे॒ची॒त्। किम्। च॒न। प्र ॥४॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:20» Mantra:4 | Ashtak:4» Adhyay:6» Varga:9» Mantra:4 | Mandal:6» Anuvak:2» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) देनेवाले राजन् ! आप जो (पणयः) व्यवहारों के जाननेवाले (शतैः) सौ सङ्ख्या से परिमित वा असङ्ख्य (वधैः) वधों से (अत्र) इस राजव्यवहार में (अपद्रन्) नहीं द्रवित होते हैं और (अर्कसातौ) अन्न आदि के विभाग में (दशोणये) दश न्यून जिससे उस (कवये) विद्वान् के लिये (अशुषस्य) शोषण से रहित (शुष्णस्य) बलिष्ठ की (मायाः) बुद्धियों को (पित्वः) अन्न आदि (किम्, चन) कुछ भी (न) नहीं (प्र, अरिरेचीत्) अच्छे प्रकार अलग करता है, उनका सत्कार करिये अर्थात् प्रशंसा करिये ॥४॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जो धर्ममार्ग का त्याग करके उन्मार्ग में चलते हैं, उनको राजा नित्य दण्ड देवे और दो दश इन्द्रियों से अधर्म का त्याग करके धर्म का आचरण करते हैं, उन का निरन्तर सत्कार करे ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे इन्द्र ! त्वं ये पणयश्शतैर्वधैरत्रापद्रन्नर्कसातौ दशोणये कवये या अशुषस्य शुष्णस्य मायाः पित्वः किञ्चन न प्रारिरेचीत् ताः सत्कुर्याः ॥४॥

Word-Meaning: - (शतैः) शतसङ्ख्याकैरसंख्यैर्वा (अपद्रन्) अपद्रवन्ति (पणयः) व्यवहारज्ञाः (इन्द्र) अन्नदाता राजन् (अत्र) अस्मिन् राजव्यवहारे (दशोणये) दशोनयः परिहाणानि यस्मात्तस्मै (कवये) विपश्चिते (अर्कसातौ) अन्नादिविभागे। अर्क इत्यन्ननाम। (निघं०२.७) (वधैः) हननैः (शुष्णस्य) बलिष्ठस्य (अशुषस्य) शोषणरहितस्य (मायाः) प्रज्ञाः (पित्वः) अन्नादिकम् (न) (अरिरेचीत्) रिणक्ति (किम्) (चन) (प्र) ॥४॥
Connotation: - हे मनुष्या ! ये धर्मपथं विहायोत्पथं चलन्ति तान् राजा नित्यं दण्डयेत् ये च दशेन्द्रियैरधर्मं विहाय धर्ममाचरन्ति तान् सततं सत्कुर्यात् ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे माणसांनो ! जे धर्म मार्गाचा त्याग करून उन्मार्गाने चालतात त्यांना राजाने नित्य दंड द्यावा. जे दहा इंद्रियांनी अधर्माचा त्याग करून धर्माचे आचरण करतात त्यांचा निरंतर सत्कार करावा. ॥ ४ ॥