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अच्छा॑ नो मित्रमहो देव दे॒वानग्ने॒ वोचः॑ सुम॒तिं रोद॑स्योः। वी॒हि स्व॒स्तिं सु॑क्षि॒तिं दि॒वो नॄन्द्वि॒षो अंहां॑सि दुरि॒ता त॑रेम॒ ता त॑रेम॒ तवाव॑सा तरेम ॥६॥

English Transliteration

acchā no mitramaho deva devān agne vocaḥ sumatiṁ rodasyoḥ | vīhi svastiṁ sukṣitiṁ divo nṝn dviṣo aṁhāṁsi duritā tarema tā tarema tavāvasā tarema ||

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Pad Path

अच्छ॑। नः॒। मि॒त्र॒ऽम॒हः॒। दे॒व॒। दे॒वान्। अग्ने॑। वोचः॑। सु॒ऽम॒तिम्। रोद॑स्योः। वी॒हि। स्व॒स्तिम्। सु॒ऽक्षि॒तिम्। दि॒वः। नॄन्। द्वि॒षः। अंहां॑सि। दुः॒ऽइ॒ता। त॒रे॒म॒। ता। त॒रे॒म॒। तव॑। अव॑सा। त॒रे॒म॒ ॥६॥

Rigveda » Mandal:6» Sukta:14» Mantra:6 | Ashtak:4» Adhyay:5» Varga:16» Mantra:6 | Mandal:6» Anuvak:1» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वानों को प्रतिदिन क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (मित्रमहः) मित्रों से आदर करने योग्य (देव) सुखके देनेवाले (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्या के प्रकाश से युक्त विद्वन् ! आप (नः) हम लोगों (देवान्) विद्वानों को तथा (रोदस्योः) अग्नि और पृथिवी सम्बन्धिनी (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को (अच्छा) उत्तम प्रकार (वोचः) कहिये (सुक्षितिम्) उत्तम भूमि जिसमें उस (स्वस्तिम्) सुख को (वीहि) प्राप्त हूजिये और (दिवः) कामना करते हुए (नॄन्) मनुष्यों से पदार्थविद्या को कहिये जिससे (तव) आपके (अवसा) रक्षण आदि से (द्विषः) द्वेष से युक्त जनों (अंहांसि) पापों और (दुरिता) दुष्ट आचरणों दुर्व्यसनों का (तरेम) उल्लङ्घन करें तथा (ता) उन निन्दादिकों का (तरेम) उल्लङ्घन करें और कुसङ्ग से हुए दोषों का (तरेम) उल्लङ्घन करें ॥६॥
Connotation: - हे विद्वान् जनो ! जितनी विद्या को आप लोग प्राप्त होओ उतनी का अन्य जनों के लिये यथावत् उपदेश करो और सत्य उपदेश से मनुष्यों के दुष्ट व्यसनों को दूर करो और आप अधर्म्म के आचरण से पृथक् वर्त्ताव करो और सत्संग तथा पुरुषार्थ से शुद्ध होकर दुःखों से पार होकर सुख को प्राप्त होओ ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौदहवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वद्भिः प्रत्यहं किं करणीयमित्याह ॥

Anvay:

हे मित्रमहो देवाऽग्ने ! त्वं नो देवान् रोदस्योः सुमतिमच्छा वोचः सुक्षितिं स्वस्तिं वीहि दिवो नॄन् पदार्थविद्यां ब्रूहि यतस्तवाऽवसा द्विषोंऽहांसि दुरिता तरेम ता तरेम कुसङ्गदोषांश्च तरेम ॥६॥

Word-Meaning: - (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (मित्रमहः) मित्रैः पूजनीय (देव) सुखदातः (देवान्) विदुषः (अग्ने) पावक इव प्रकाशमान विद्वन् (वोचः) ब्रूहि (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (रोदस्योः) अग्निपृथिव्योः (वीहि) व्याप्नुहि (स्वस्तिम्) सुखम् (सुक्षितिम्) शोभना क्षितिर्भूमियस्यां ताम् (दिवः) कामयामानान् (नॄन्) मनुष्यान् (द्विषः) द्वेष्टॄन् (अंहांसि) पापानि (दुरिता) दुष्टाचरणानि दुर्व्यसनानि (तरेम) उल्लङ्घेम (ता) तानि निन्दादीनि (तरेम) (तव) (अवसा) रक्षणाद्येन (तरेम) ॥६॥
Connotation: - हे विद्वांसो ! यावतीं विद्यां यूयं प्राप्नुयात तावतीमन्येभ्यो यथावदुपदिशत सत्योपदेशेन मनुष्याणां दुर्व्यसनानि दूरीकुरुत स्वयमधर्म्माचरणात् पृथग्वर्त्तध्वं सत्सङ्गेन पुरुषार्थेन च शुद्धा भूत्वा दुःखानि तीर्त्वा सुखमाप्नुतेति ॥६॥ अत्राऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्दशं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - हे विद्वानांनो ! जेवढी विद्या तुम्हाला प्राप्त झालेली असेल तेवढी उपदेशरूपाने इतरांना द्या व सत्य उपदेशाने माणसांच्या दुर्व्यसनांना दूर करा. अधर्माचरणापासून पृथक राहा. सत्संग आणि पुरुषार्थाने पवित्र बनून, दुःखातून पार पडून सुख प्राप्त करा. ॥ ६ ॥