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त्वाम॑ग्ने प्र॒दिव॒ आहु॑तं घृ॒तैः सु॑म्ना॒यवः॑ सुष॒मिधा॒ समी॑धिरे। स वा॑वृधा॒न ओष॑धीभिरुक्षि॒तो॒३॒॑भि ज्रयां॑सि॒ पार्थि॑वा॒ वि ति॑ष्ठसे ॥७॥

English Transliteration

tvām agne pradiva āhutaṁ ghṛtaiḥ sumnāyavaḥ suṣamidhā sam īdhire | sa vāvṛdhāna oṣadhībhir ukṣito bhi jrayāṁsi pārthivā vi tiṣṭhase ||

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Pad Path

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। प्र॒ऽदिवः॑। आऽहु॑तम्। घृ॒तैः। सु॒म्न॒ऽयवः॑। सु॒ऽस॒मिधा॑। सम्। ई॒धि॒रे॒। सः। व॒वृ॒धा॒नः। ओष॑धीभिः। उ॒क्षि॒तः। अ॒भि। ज्रयां॑सि। पार्थि॑वा। वि। ति॒ष्ठ॒से॒ ॥७॥

Rigveda » Mandal:5» Sukta:8» Mantra:7 | Ashtak:3» Adhyay:8» Varga:26» Mantra:7 | Mandal:5» Anuvak:1» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (अग्ने) विद्वन् ! जैसे (सुम्नायवः) अपने सुख की इच्छा करनेवाले जन (घृतैः) प्रकाशित करनेवाले साधनों और (सुषमिधा) उत्तम प्रकार प्रकाश करनेवाले इन्धन के साथ (प्रदिवः) अत्यन्त प्रकाश से (आहुतम्) ग्रहण किये गये जिनको (सम्, ईधिरे) उत्तम प्रकार प्रकाशित करते हैं (सः) वह (वावृधानः) निरन्तर बढ़नेवाले (उक्षितः) उत्तम प्रकार सींचे गये आप (ओषधीभिः) सोमलता और यवादिकों से (पार्थिवा) पृथिवी में विदित (अभि) सब ओर से (ज्रयांसि) वेगयुक्त कर्मों को (वि, तिष्ठसे) विशेष करके स्थित करते हो, वैसे (त्वाम्) आप को निरन्तर हम लोग सुख देवें ॥७॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन सब पदार्थों से बिजुली की विद्या को उत्पन्न करते हैं, वैसे विद्वान् जन सब से गुणों को ग्रहण करते हैं ॥७॥ इस सूक्त में अग्नि, और विद्वान् के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य महाविद्वान् श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्री दयानदसरस्वती स्वामिविरचित उत्तम प्रमाणयुक्त संस्कृत और आर्य्यभाषाविभूषित ऋग्वेदभाष्य में तृतीयाष्टक में अष्टम अध्याय और छब्बीसवाँ वर्ग, तीसरा अष्टक तथा पञ्चम मण्डल में अष्टम सूक्त समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

Anvay:

हे अग्ने ! यथा सुम्नायवो घृतैः सुषमिधा प्रदिव आहुतं यं समीधिरे स वावृधान उक्षितस्त्वमोषधीभिः पार्थिवा अभि ज्रयांसि वि तिष्ठसे तथा त्वां सततं वयं सुखयेम ॥७॥

Word-Meaning: - (त्वाम्) शिल्पविद्योपदेशकम् (अग्ने) विद्वन् (प्रदिवः) प्रकृष्टात् प्रकाशात् (आहुतम्) गृहीतम् (घृतैः) प्रदीपकैः साधनैः (सुम्नायवः) य आत्मनः सुम्नमिच्छवः (सुषमिधा) सम्यक् प्रदीपकेनेन्धनेन (सम्) (ईधिरे) सम्यक् प्रदीपयन्ति (सः) (वावृधानः) भृशं वर्धनः (ओषधीभिः) सोमयवादिभिः (उक्षितः) संसिक्तः (अभि) (ज्रयांसि) वेगयुक्तानि कर्माणि (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि (वि) (तिष्ठसे) ॥७॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो विद्युद्विद्यामुत्पादयन्ति तथा विद्वांसः सर्वतो गुणान् गृह्णन्तीति ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां महाविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्ते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषित ऋग्वेदभाष्ये तृतीयाष्टकष्टमोऽध्यायः षड्विंशो वर्गस्तृतीयाष्टकश्च पञ्चमे मण्डलेऽष्टमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान सर्व पदार्थांतून विद्युतची विद्या उत्पन्न करतात तसेच विद्वान लोकही गुण ग्रहण करतात. ॥ ७ ॥