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सं॒जर्भु॑राण॒स्तरु॑भिः सुते॒गृभं॑ वया॒किनं॑ चि॒त्तग॑र्भासु सु॒स्वरुः॑। धा॒र॒वा॒केष्वृ॑जुगाथ शोभसे॒ वर्ध॑स्व॒ पत्नी॑र॒भि जी॒वो अ॑ध्व॒रे ॥५॥

English Transliteration

saṁjarbhurāṇas tarubhiḥ sutegṛbhaṁ vayākinaṁ cittagarbhāsu susvaruḥ | dhāravākeṣv ṛjugātha śobhase vardhasva patnīr abhi jīvo adhvare ||

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Pad Path

स॒म्ऽजर्भु॑राणः। तरु॑ऽभिः। सु॒ते॒ऽगृभ॑म्। व॒या॒किन॑म्। चि॒त्तऽग॑र्भासु। सु॒ऽस्वरुः॑। धा॒र॒ऽवा॒केषु॑। ऋ॒जु॒ऽगा॒थ॒। शो॒भ॒से॒। वर्ध॑स्व। पत्नीः॑। अ॒भि। जी॒वः। अ॒ध्व॒रे ॥५॥

Rigveda » Mandal:5» Sukta:44» Mantra:5 | Ashtak:4» Adhyay:2» Varga:23» Mantra:5 | Mandal:5» Anuvak:3» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे (ऋजुगाथ) सरल व्यवहार के स्तुति करनेवाले ! आप (तरुभिः) वृक्षों से (सञ्जर्भुराणः) उत्तम प्रकार पालन और धारण करते हुए (धारवाकेषु) शास्त्रवाणी के उपदेश करनेवालों में और (चित्तगर्भासु) चेतनतारूप गर्भ जिनमें उनके निमित्त (सुतेगृभम्) उत्पन्न जगत् में ग्रहण किये गये (वयाकिनम्) व्यापी को, प्रजाओं में (सुस्वरुः) उत्तम प्रकार उपदेश करनेवाले हुए (अध्वरे) अहिंसायुक्त व्यवहार में (शोभसे) शोभा को प्राप्त हूजिये और (जीवः) जीवते हुए (पत्नीः) स्त्रियों को जैसे वैसे प्रजाओं के (अभि) सन्मुख (वर्धस्व) वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥५॥
Connotation: - जो मनुष्य स्थावर, जङ्गमरूप प्रजाओं से उपकार ग्रहण कर सकें, वे सदा ही आनन्दित होवें ॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

Anvay:

हे ऋजुगाथ ! त्वं तरुभिस्सञ्जर्भुराणो धारवाकेषु चित्तगर्भासु सुतेगृभं वयाकिनं प्रजासु सुस्वरुः सन्नध्वरे शोभसे जीवः सन् पत्नीरिव प्रजा अभि वर्धस्व ॥५॥

Word-Meaning: - (सञ्जर्भुराणः) सम्यक् पालयन् धरन् (तरुभिः) वृक्षैः (सुतेगृभम्) उत्पन्ने जगति गृहीतम् (वयाकिनम्) व्यापिनम् (चित्तगर्भासु) चित्तं चेतनत्वं गर्भो यासु तासु (सुस्वरुः) सुष्ठूपदेशकः (धारवाकेषु) शास्त्रवागुपदेशकेषु (ऋजुगाथ) य ऋजुं सरलं व्यवहारं गाति स्तौति तत्सम्बुद्धौ (शोभसे) शोभां प्राप्नुयाः (वर्धस्व) (पत्नीः) स्त्रियः (अभि) आभिमुख्ये (जीवः) (अध्वरे) अहिंसायुक्ते व्यवहारे ॥५॥
Connotation: - ये मनुष्याः स्थावरजङ्गमाभ्यः प्रजाभ्य उपकारं ग्रहीतुं शक्नुयुस्ते सदैवानन्दिता भवेयुः ॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जी माणसे स्थावर जङ्मरूप प्रजेकडून उपकार ग्रहण करू शकतात, ती सदैव आनंदित होतात. ॥ ५ ॥