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चतुः॑सहस्रं॒ गव्य॑स्य प॒श्वः प्रत्य॑ग्रभीष्म रु॒शमे॑ष्वग्ने। घ॒र्मश्चि॑त्त॒प्तः प्र॒वृजे॒ य आसी॑दय॒स्मय॒स्तम्वादा॑म॒ विप्राः॑ ॥१५॥

English Transliteration

catuḥsahasraṁ gavyasya paśvaḥ praty agrabhīṣma ruśameṣv agne | gharmaś cit taptaḥ pravṛje ya āsīd ayasmayas tam v ādāma viprāḥ ||

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Pad Path

चतुः॑ऽसहस्रम्। गव्य॑स्य। प॒श्वः। प्रति॑। अ॒ग्र॒भी॒ष्म॒। रु॒शमे॑षु। अ॒ग्ने॒। घ॒र्मः। चि॒त्। त॒प्तः। प्र॒ऽवृजे॑। यः। आसी॑त्। अ॒य॒स्मयः॑। तम्। ऊँ॒ इति॑। आदा॑म। विप्राः॑ ॥१५॥

Rigveda » Mandal:5» Sukta:30» Mantra:15 | Ashtak:4» Adhyay:1» Varga:28» Mantra:5 | Mandal:5» Anuvak:2» Mantra:15


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान राजन् ! (यः) जो (अयस्मयः) सुवर्ण के सदृश तेजःस्वरूप (तप्तः) तापयुक्त (घर्मः) प्रताप (प्रवृजे) अच्छे प्रकार त्याग करते हैं जिसमें उसमें और (रुशमेषु) हिंसक मन्त्रियों में (आसीत्) वर्त्तमान है (तम्) उस (चतुःसहस्रम्) चार हजार संख्या युक्त को (गव्यस्य) किरणों के विकार और (पश्वः) पशु के सम्बन्ध में जैसे हम लोग (प्रति, अग्रभीष्म) ग्रहण करें, वैसे आप ग्रहण करो और हे (विप्राः) बुद्धिमान् जनो ! आप लोगों के लिये उस (उ) ही को हम लोग (आदाम) सब प्रकार से देवें, उसको हम लोगों के लिये आप लोग (चित्) भी दीजिये ॥१५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य शीत और उष्ण का सेवन युक्ति से करने को जानते हैं और इसकी विद्या को परस्पर देते हैं, वे सर्वदा रोगरहित होते हैं ॥१५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तीसवाँ सूक्त और अठ्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे अग्ने ! योऽयस्मयस्तप्तो घर्मः प्रवृजे रुशमेष्वासीत्तं चतुःसहस्रं गव्यस्य पश्वो यथा वयं प्रत्यग्रभीष्म तथा त्वं गृहाण। हे विप्रा ! युष्मभ्यं तमु वयमादाम तमस्मभ्यं यूयं चिद् दत्त ॥१५॥

Word-Meaning: - (चतुःसहस्रम्) चत्वारि सहस्राणि सङ्ख्या यस्य तम् (गव्यस्य) गवां किरणानां विकारस्य (पश्वः) पशोः (प्रति) (अग्रभीष्म) प्रतिगृह्णीयाम (रुशमेषु) हिंसकमन्त्रिषु (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान राजन् (घर्मः) प्रतापः (चित्) अपि (तप्तः) (प्रवृजे) प्रवृजते यस्मिँस्तस्मिन् (यः) (आसीत्) अस्ति (अयस्मयः) हिरण्यमिव तेजोमयः (तम्) (उ) (आदाम) समन्ताद् दद्याम (विप्राः) मेधाविनः ॥१५॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः शीतोष्णसेवनं युक्त्या कर्त्तुं जानन्त्येतद्विद्यां परस्परं ददति ते सर्वदाऽरोगा भवन्तीति ॥ अत्रेन्द्रवीराग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिंशत्तमं सूक्तमष्टाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे शीत व उष्ण यांचे युक्तीने ग्रहण करतात व ती विद्या परस्परांना देतात ती सदैव रोगरहित होतात. ॥ १५ ॥