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अ॒हमिन्द्रो॒ वरु॑ण॒स्ते म॑हि॒त्वोर्वी ग॑भी॒रे रज॑सी सु॒मेके॑। त्वष्टे॑व॒ विश्वा॒ भुव॑नानि वि॒द्वान्त्समै॑रयं॒ रोद॑सी धा॒रयं॑ च ॥३॥

English Transliteration

aham indro varuṇas te mahitvorvī gabhīre rajasī sumeke | tvaṣṭeva viśvā bhuvanāni vidvān sam airayaṁ rodasī dhārayaṁ ca ||

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Pad Path

अ॒हम्। इन्द्रः॑। वरु॑णः। ते इति॑। म॒हि॒ऽत्वा। उ॒र्वी इति॑। ग॒भी॒रे इति॑। रज॑सी॒ इति॑। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। त्वष्टा॑ऽइव। विश्वा॑। भुव॑नानि। वि॒द्वान्। सम्। ऐ॒र॒य॒म्। रोद॑सी॒ इति॑। धा॒रय॑म्। च॒ ॥३॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:42» Mantra:3 | Ashtak:3» Adhyay:7» Varga:17» Mantra:3 | Mandal:4» Anuvak:4» Mantra:3


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवान् (वरुणः) सब से उत्तम (अहम्) अतीव व्याप्त मैं (विद्वान्) सकलविद्यावेत्ता (त्वष्टेव) उत्तम शिल्पी के सदृश (गभीरे) विस्तारयुक्त (सुमेके) सुन्दर मुझ से रचे और उत्तम प्रकार फैलाये गये (रजसी) सूर्य्य और पृथिवी को (महित्वा) पूजित कर (ते) उन (उर्वी) बहुत पदार्थों को धारण करनेवाले (रोदसी) सूर्य्य और पृथिवी लोकों को रच के यहाँ (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (सम्) एक होने में (ऐरयम्) प्रेरणा करूँ (धारयम् च,) और धारण करूँ वा धारण कराऊँ, यह जानो ॥३॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे चतुर पण्डित, पूर्ण विद्यावान्, शिल्पी जन उत्तम वस्तुओं को रचते हैं, वैसे ही मुझ से विचित्र उत्तम उत्तम जगत् रचा गया धारण किया जाता है और जैसे मैंने रचा वैसे अन्य जीव का सामर्थ्य रचने का नहीं है, किन्तु मेरे किये हुए कार्य्य से कुछ ग्रहण करके अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार रचते हैं, यह जानना चाहिये ॥३॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! इन्द्रो वरुणोऽहं विद्वांस्त्वष्टेव गभीरे सुमेके रजसी महित्वा ते उर्वी रोदसी रचयित्वाऽत्र विश्वा भुवनानि समैरयन्धारयञ्चेति विजानीत ॥३॥

Word-Meaning: - (अहम्) महान् व्याप्तः (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (वरुणः) सर्वत उत्कृष्टः (ते) (महित्वा) पूजयित्वा (ऊर्वी) बहुपदार्थधरे (गभीरे) विस्तीर्णे (रजसी) द्यावापृथिव्यौ (सुमेके) शोभने मया सृष्टे सुष्ठु क्षिप्ते (त्वष्टेव) उत्तमः शिल्पीव (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) लोकान् (विद्वान्) सकलविद्यावित् (सम्) एकीभावे (ऐरयम्) प्रेरयेयम् (रोदसी) सूर्य्यभूलोकौ (धारयम्) धरेयं धारयेयं वा (च) ॥३॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः । यथा दक्षा विचक्षणाः पूर्णविद्याः शिल्पिन उत्तमानि वस्तूनि निर्मिमते तथैव मया विचित्रमुत्तमं जगन्निर्मितं ध्रियते यथा मया रचितं तथाऽन्यस्य जीवस्य सामर्थ्यं रचयितुं नास्ति किन्तु मत्कृतात् कार्य्यात् किञ्चिद् गृहीत्वा यथामति रचयन्तीति वेद्यम् ॥३॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चतुर, पंडित पूर्ण विद्वान कारागीर लोक उत्तम उत्तम वस्तू तयार करतात, तसेच माझ्याकडून (परमात्म्याकडून) हे विचित्र उत्तम जग निर्माण केले गेलेले आहे, धारण केलेले आहे व जसे मी निर्माण केले तसे इतर जीवाचे निर्माण करण्याचे सामर्थ्य नाही; परंतु मी केलेल्या कार्याचे थोडेसे ग्रहण करून आपापल्या बुद्धीनुसार निर्माण करतात हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥