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यः स्मा॑रुन्धा॒नो गध्या॑ स॒मत्सु॒ सनु॑तर॒श्चर॑ति॒ गोषु॒ गच्छ॑न्। आ॒विर्ऋ॑जीको वि॒दथा॑ नि॒चिक्य॑त्ति॒रो अ॑र॒तिं पर्याप॑ आ॒योः ॥४॥

English Transliteration

yaḥ smārundhāno gadhyā samatsu sanutaraś carati goṣu gacchan | āvirṛjīko vidathā nicikyat tiro aratim pary āpa āyoḥ ||

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Pad Path

यः। स्म॒। आ॒ऽरु॒न्धा॒नः। गध्या॑। स॒मत्ऽसु॑। सनु॑ऽतरः। चर॑ति। गोषु॑। गच्छ॑न्। आ॒विःऽऋ॑जीकः॒। वि॒दथा॑। नि॒ऽचिक्य॑त्। ति॒रः। अ॒र॒तिम्। परि॑। आपः॑। आ॒योः ॥४॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:38» Mantra:4 | Ashtak:3» Adhyay:7» Varga:11» Mantra:4 | Mandal:4» Anuvak:4» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे राजन् ! (यः) जो (सनुतरः) सनातन विद्यायुक्त (समत्सु) संग्रामों में (गध्या) मिले हुए (आरुन्धानः) सब ओर से शत्रुओं को रोकता हुआ (आविर्ऋजीकः) प्रसिद्ध सरल अर्थात् कपटरहित स्वभाववाला (गोषु) पृथिवियों में (गच्छन्) चलता और (निचिक्यत्) देखता हुआ शत्रुओं का (तिरः) तिरस्कार और (अरतिम्) दुःख का निवारण करके (परि, चरति) घूमता है (आपः) जलों के सदृश (आयोः) अवस्था के (विदथा) विज्ञानों को प्राप्त होता है (स्म) उसी को आप अधिकारी करें ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो जन अपने राज्य में शान्ति करने, शत्रुओं के राज्य में भय देने और बलयुक्त, अधिक अवस्थावाले, प्रसिद्ध कीर्तियुक्त होवें, उन्हीं को शत्रुओं के जीतने के लिये नियुक्त करो ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे राजन् ! यः सनुतरः समत्सु गध्याऽऽरुन्धान आविर्ऋजीको गोषु गच्छन् निचिक्यच्छत्रूंस्तिरस्कृत्यारतिं निवार्य परि चरति आप इवाऽऽयोर्विदथा प्राप्नोति तं स्म भवानधिकारिणं कुर्य्यात् ॥४॥

Word-Meaning: - (यः) (स्म) (आरुन्धानः) समन्ताच्छत्रून्निरुन्धानः (गध्या) मिश्रीभूतान् (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (सनुतरः) सनातनविद्यः (चरति) (गोषु) पृथिवीषु (गच्छन्) (आविर्ऋजीकः) प्रसिद्धसरलस्वभावः (विदथा) विज्ञानानि (निचिक्यत्) पश्यन् (तिरः) तिरस्करणे (अरतिम्) दुःखम् (परि) (आपः) जलानि (आयोः) आयुषः ॥४॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये जनाः स्वराष्ट्रे शान्तिकराः शत्रुराष्ट्र उद्वेजका बलिष्ठा दीर्घायुषः प्रसिद्धकीर्त्तयः स्युस्तानेव शत्रुजयाय नियोजय ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जे लोक आपल्या राज्यात शांतता प्रस्थापन करतात, शत्रूच्या राज्याला भयभीत करतात. बलवान, दीर्घायुषी, कीर्तिमान असतात त्यांनाच शत्रूंना जिंकण्यासाठी नियुक्त कर. ॥ ४ ॥