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तस्मा॑ अ॒ग्निर्भार॑तः॒ शर्म॑ यंस॒ज्ज्योक्प॑श्या॒त्सूर्य॑मु॒च्चर॑न्तम्। य इन्द्रा॑य सु॒नवा॒मेत्याह॒ नरे॒ नर्या॑य॒ नृत॑माय नृ॒णाम् ॥४॥

English Transliteration

tasmā agnir bhārataḥ śarma yaṁsaj jyok paśyāt sūryam uccarantam | ya indrāya sunavāmety āha nare naryāya nṛtamāya nṛṇām ||

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Pad Path

तस्मै॑। अ॒ग्निः। भार॑तः। शर्म॑। यं॒स॒त्। ज्योक्। प॒श्या॒त्। सूर्य॑म्। उ॒त्ऽचर॑न्तम्। यः। इन्द्रा॑य। सुनवा॑म। इति॑। आह॑। नरे॑। नर्या॑य। नृऽत॑माय। नृ॒णाम् ॥४॥

Rigveda » Mandal:4» Sukta:25» Mantra:4 | Ashtak:3» Adhyay:6» Varga:13» Mantra:4 | Mandal:4» Anuvak:3» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि के सदृश वर्त्तमान (भारतः) धारण करनेवाले का यह धारण करनेवाला (शर्म्म) गृह के सदृश सुख को (यंसत्) प्राप्त होवे वह (उच्चरन्तम्) ऊपर को घूमते हुए (सूर्य्यम्) सूर्य्यमण्डल को (ज्योक्) निरन्तर (पश्यात्) देखे (तस्मै) उस (नृणाम्) विद्या और उत्तमशीलयुक्त मनुष्यों के (नृतमाय) अत्यन्त मुखिया (नरे) नायक (नर्य्याय) मनुष्यों में कुशल (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्यवान् के लिये (इति) ऐसा (आह) कहता है, उसको हम लोग (सुनवाम) उत्पन्न करें ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो गृह में निवास के सदृश विद्या में निवास करे और ब्रह्मचर्य्य से खगोल आदि विद्या को प्राप्त होवे और मनुष्यों के लिये हित का उपदेश देवे, वही उत्तम होता सौ वर्ष पर्य्यन्त जीवता और सूर्य्य आदि को देखता हुआ सब सुख को देवे ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! योऽग्निरिव भारतः शर्म्म यंसत् स उच्चरन्तं सूर्य्यं ज्योक् पश्यात् तस्मै नृणां नृतमाय नरे नर्य्यायेन्द्रायेत्याह तं वयं सुनवाम ॥४॥

Word-Meaning: - (तस्मै) (अग्निः) पावकवद्वर्त्तमानः (भारतः) धारकस्यायं धर्त्ता (शर्म्म) गृहमिव सुखम्। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (यंसत्) यच्छेत् प्राप्नुयात् (ज्योक्) निरन्तरम् (पश्यात्) सम्प्रेक्षेत (सूर्य्यम्) सूर्य्यमण्डलम् (उच्चरन्तम्) ऊर्ध्वं विहरन्तम् (यः) (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (सुनवाम) निष्पादयेम (इति) (आह) ब्रूते (नरे) नायकाय (नर्य्याय) नृषु कुशलाय (नृतमाय) अतिशयेन नायकाय (नृणाम्) विद्यासुशीलयुक्तानां मनुष्याणाम् ॥४॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो गृहे निवास इव विद्यायां निवसेद् ब्रह्मचर्य्येण खगोलदिविद्यां प्राप्नुयान्मनुष्येभ्यो हितमुपदिशेत् स एवोत्तमः सञ्छतं वर्षाणि जीवन्त्सूर्य्यादिकं पश्यन्त्सर्वं सुखं यच्छेत् ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो घरात निवास केल्याप्रमाणे विद्येत निवास करतो व ब्रह्मचर्यपूर्वक खगोल इत्यादी विद्या प्राप्त करतो, माणसांना हिताचा उपदेश करतो तोच उत्तम असतो आणि शंभर वर्षे जगतो व सूर्य इत्यादीला पाहत सर्वांना सुख देतो. ॥ ४ ॥