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ऊ॒र्ध्वो वां॑ गा॒तुर॑ध्व॒रे अ॑कार्यू॒र्ध्वा शो॒चींषि॒ प्रस्थि॑ता॒ रजां॑सि। दि॒वो वा॒ नाभा॒ न्य॑सादि॒ होता॑ स्तृणी॒महि॑ दे॒वव्य॑चा॒ वि ब॒र्हिः॥

English Transliteration

ūrdhvo vāṁ gātur adhvare akāry ūrdhvā śocīṁṣi prasthitā rajāṁsi | divo vā nābhā ny asādi hotā stṛṇīmahi devavyacā vi barhiḥ ||

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Pad Path

ऊ॒र्ध्वः। वा॒म्। गा॒तुः। अ॒ध्व॒रे। अ॒का॒रि॒। ऊ॒र्ध्वा। शो॒चींषि॑। प्रस्थि॑ता। रजां॑सि। दि॒वः। वा॒। नाभा॑। नि। अ॒सा॒दि॒। होता॑। स्तृ॒णी॒महि॑। दे॒वऽव्य॑चाः। वि। ब॒र्हिः॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:4» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:22» Mantra:4 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे यज्ञ करने और यज्ञ सिद्ध करानेवालो ! (वाम्) तुम्हारे (अध्वरे) न नष्ट करने योग्य व्यवहार में वह (ऊर्द्ध्वः) ऊपर जाने (गातुः) और स्तुति करनेवाला (अकारि) किया जाता (देवव्यचाः) बहुत यज्ञ पृथिव्यादिकों को व्याप्त होने वा (होता) पदार्थों को ग्रहण करनेवाला (नि, असादि) सिद्ध किया जाता है, जिस यज्ञ से हम लोग (ऊर्द्ध्वा) ऊपर जानेवाले (प्रस्थिता) जाने का आरम्भ किये हुए (शोचींषि) तेजों को और (रजांसि) लोकों को तथा (दिवः) किरणों को (वा) वा (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (नाभा) नाभी के बीच (विस्तृणीमहि) विस्तारते हैं ॥४॥
Connotation: - जो यज्ञकर्ता और यज्ञ करानेवाले विद्वान् हों और सुन्दर शुद्ध पदार्थों को अग्नि में छोड़ें, तो क्या-क्या सुख प्राप्त न हों? ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्विद्वद्विषयमाह।

Anvay:

हे यजमान यज्ञसंपादकौ वामध्वरे स ऊर्द्ध्वो गातुरकारि देवव्यचा होता न्यसादि येन यज्ञेन वयमूर्द्ध्वा प्रस्थिता शोचींषि रजांसि दिवो वा बर्हिर्नाभा विस्तृणीमहि ॥४॥

Word-Meaning: - (ऊर्द्ध्वः) उपरिगामी (वाम्) युवयोः (गातुः) स्तावकः (अध्वरे) अहिंसनीये व्यवहारे (अकारि) क्रियते (ऊर्द्ध्वा) ऊर्द्ध्वं गामीनि (शोचींषि) तेजांसि (प्रस्थिता) प्रस्थितानि (रजांसि) लोकान्प्रति (दिवः) किरणान् (वा) (नाभा) नाभौ मध्ये (नि) नितराम् (असादि) सद्यते (होता) आदाता (स्तृणीमहि) आच्छादयेम (देवव्यचाः) यो देवान् पृथिव्यादीन् व्यचति व्याप्नोति सः (वि) (बर्हिः) अन्तरिक्षस्य ॥४॥
Connotation: - यदि यजमानयज्ञकर्तारौ विद्वांसौ स्यातां सुशोधितानि द्रव्याण्यग्नौ प्रक्षिपेतां तर्हि किं किं सुखं न प्राप्तं स्यात् ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - यज्ञ करणाऱ्या यज्ञकर्त्या विद्वानांनी चांगले पदार्थ अग्नीत टाकले तर कोणते सुख प्राप्त होणार नाही? ॥ ४ ॥