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शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥

English Transliteration

śunaṁ huvema maghavānam indram asmin bhare nṛtamaṁ vājasātau | śṛṇvantam ugram ūtaye samatsu ghnantaṁ vṛtrāṇi saṁjitaṁ dhanānām ||

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Pad Path

शु॒नम्। हु॒वे॒म॒। म॒घवा॑नम्। इन्द्र॑म्। अ॒स्मिन्। भरे॑। नृऽत॑मम्। वाज॑ऽसातौ। शृ॒ण्वन्त॑म्। उ॒ग्रम्। ऊ॒तये॑। स॒मत्ऽसु॑। घ्नन्त॑म्। वृ॒त्राणि॑। स॒म्ऽजित॑म्। धना॑नाम्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:38» Mantra:10 | Ashtak:3» Adhyay:2» Varga:24» Mantra:5 | Mandal:3» Anuvak:3» Mantra:10


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (अस्मिन्) इस (वाजसातौ) सत्य और असत्य के विभाग और (भरे) पालन करने योग्य राज्य में (शुनम्) राजप्रजाजनित अर्थात् राजा प्रजा से उत्पन्न हुए सुख (मघवानम्) बहुत धन से युक्त वैश्य (शृण्वन्तम्) सुनते हुए (नृतमम्) उत्तम नायक (उग्रम्) पाप के नाश के लिये प्रतापी (समत्सु) संग्रामों में (घ्नन्तम्) शत्रुओं के नाश करने (वृत्राणि) धनों को देने और (धनानाम्) धनों को (सञ्जितम्) उत्तम प्रकार जीतनेवाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् राजा को (हुवेम) ग्रहण करैं, वैसे इसको आप लोग भी ग्रहण करो ॥१०॥
Connotation: - जो राजा और प्रजाजन परस्पर प्रसन्न परस्पर के सुख और दुःख की वार्त्ताओं को सुनते दुष्ट पुरुषों का ताड़न करते और सत्पुरुषों का सत्कार करते हुए परस्पर के उत्तम कर्मों की प्रशंसा करैं, वे अत्यन्त ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर सुखी होवैं ॥१०॥ इस सूक्त में विद्वान् शिल्पी सभा राजा प्रजा सूर्य और भूमि आदि के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ३८ वाँ सूक्त २४ वाँ वर्ग और ३ मण्डल में ३ अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या यथा वयमूतयेऽस्मिन्वाजसातौ भरे शुनं मघवानं शृण्वन्तं नृतममुग्रं समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि ददतं धनानां सञ्जितमिन्द्रं हुवेम तथैतं यूयमप्याह्वयत ॥१०॥

Word-Meaning: - (शुनम्) राजप्रजाजनितं सुखम् (हुवेम) गृह्णीयाम (मघवानम्) बहुधनवन्तं वैश्यम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यं राजानम् (अस्मिन्) (भरे) पालनीये राज्ये (नृतमम्) प्रशस्तनायकम् (वाजसातौ) सत्यासत्यविभागे (शृण्वन्तम्) (उग्रम्) पापनाशाय तेजस्विनम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) (वृत्राणि) धनानि। वृत्रमिति धनना०। निघं० २। १०। (सञ्जितम्) सम्यग्जयशीलं शूरवीरम् (धनानाम्) ॥१०॥
Connotation: - ये राजप्रजाजनाः परस्परं प्रीता अन्योऽन्यस्य सुखदुःखवार्त्ताः शृण्वन्तो दुष्टान् ताडयन्तः सत्पुरुषान् सत्कुर्वन्तोऽन्योन्येषां सत्कर्माणि प्रशंसेयुस्ते परमैश्वर्य्यं लब्ध्वा सुखिनः स्युरिति ॥१०॥। अस्मिन्सूक्ते विद्वच्छिल्पिसभाराजप्रजासूर्य्यभूम्यादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति ३८ सूक्तं २४ वर्गः ३ मण्डले ३ अनुवाकश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जो राजा व प्रजा परस्परांना प्रसन्न करून परस्परांच्या सुख-दुःखाची वार्ता ऐकतात. दुष्ट पुरुषांचे ताडन करतात व सत्पुरुषांचा सत्कार करून परस्पर उत्तम कार्याची प्रशंसा करतात. ते अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त करून सुखी होतात. ॥ १० ॥