Go To Mantra

शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥

English Transliteration

śunaṁ huvema maghavānam indram asmin bhare nṛtamaṁ vājasātau | śṛṇvantam ugram ūtaye samatsu ghnantaṁ vṛtrāṇi saṁjitaṁ dhanānām ||

Mantra Audio
Pad Path

शु॒नम्। हु॒वे॒म॒। म॒घवा॑नम्। इन्द्र॑म्। अ॒स्मिन्। भरे॑। नृऽत॑मम्। वाज॑ऽसातौ। शृ॒ण्वन्त॑म्। उ॒ग्रम्। ऊ॒तये॑। स॒मत्ऽसु॑। घ्नन्त॑म्। वृ॒त्राणि॑। स॒म्ऽजित॑म्। धना॑नाम्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:30» Mantra:22 | Ashtak:3» Adhyay:2» Varga:4» Mantra:7 | Mandal:3» Anuvak:3» Mantra:22


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जिसको (अस्मिन्) इस संग्राम में कि (भरे) जिसमें धनों को धारण करते और (वाजसातौ) धन आदि पदार्थों का विभाग करते हैं (शुनम्) ज्ञान से वृद्ध (मघवानम्) बहुत धन से युक्त (नृतमम्) अत्यन्त ही मनुष्यों में उत्तम (शृण्वन्तम्) सम्पूर्ण अर्थी अर्थात् मुद्दई और प्रत्यर्थी अर्थात् मुद्दाले के न्याय करने के लिये वचनों के श्रोता (उग्रम्) तेजःस्वभाववाले पुरुष को (समत्सु) संग्रामों में (वृत्राणि) घेरनेवाली मेघों के सदृश शत्रुओं की सेनाओं के (घ्नन्तम्) नाशकर्त्ता और (धनानाम्) लक्ष्मियों के (संजितम्) उत्तम प्रकार जीतने वा (इन्द्रम्) देनेवाले की हम लोग (हुवेम) प्रशंसा करें उसका आपलोग भी (ऊतये) रक्षा आदि के लिये आह्वान करें ॥२२॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग शरीर और आत्मबल से बढ़े असंख्य धन के देने और मनुष्यों में उत्तम शत्रुओं के जीतनेवाले धर्मिष्ठ पुरुष में नम्रस्वभाव और दुष्ट पुरुषों में तीव्रस्वभाव युक्त पालनकर्त्ता स्वामी को अपने ऊपर नियत करके निरन्तर सुख को प्राप्त हूजिये ॥२२॥ इस सूक्त में इन्द्र और विद्वान् के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या यमस्मिन् भरे वाजसातौ शुनं मघवानं नृतमं शृण्वन्तमुग्रं समत्सु वृत्राणि घ्नन्तं धनानां संजितमिन्द्रं वयं हुवेम तं यूयमूतय आह्वयत ॥२२॥

Word-Meaning: - (शुनम्) ज्ञानवृद्धम् (हुवेम) प्रशंसेम (मघवानम्) बहुधनवन्तम् (इन्द्रम्) दातारम् (अस्मिन्) (भरे) बिभ्रति धनानि यस्मिंस्तस्मिन् (नृतमम्) अतिशयेन नृषूत्तमम् (वाजसातौ) वाजान्धनाद्यान् पदार्थान् सनन्ति विभजन्ति यस्मिंस्तस्मिन् सङ्ग्रामे। वाजासाताविति सङ्ग्रामना०। निघं० २। १७। [(शृण्वन्तम्) न्यायप्रदानार्थमर्थिप्रत्यर्थिवचनश्रोतारम्] (उग्रम्) तेजस्विस्वभावम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) हिंसन्तम् (वृत्राणि) आवरका घना इव शत्रुसैन्यानि (संजितम्) सम्यग्जयशीलम् (धनानाम्) श्रियाम् ॥२२॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं शरीरात्मबलाभ्यां प्रवृद्धमसङ्ख्यधनप्रदं नरोत्तमं शत्रूणां विजेतारं धर्मिष्ठे साधुं दुष्टेष्वत्युग्रं पालकं स्वामिनं स्वोपरि मत्वा सततं सुखयतेति ॥२२॥ अत्रेन्द्रविद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शरीर व आत्मबलाने प्रबुद्ध, असंख्य धन देणारा नरोत्तम, शत्रूंवर विजय मिळविणारा, धार्मिक, नम्रस्वभावी व दुष्टांसाठी उग्र, पालक अशा स्वामीला स्वीकारून सुखी व्हा. ॥ २२ ॥