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अ॒ग्निर्दे॒वेभि॒र्मनु॑षश्च ज॒न्तुभि॑स्तन्वा॒नो य॒ज्ञं पु॑रु॒पेश॑सं धि॒या। र॒थीर॒न्तरी॑यते॒ साध॑दिष्टिभिर्जी॒रो दमू॑ना अभिशस्ति॒चात॑नः॥

English Transliteration

agnir devebhir manuṣaś ca jantubhis tanvāno yajñam purupeśasaṁ dhiyā | rathīr antar īyate sādhadiṣṭibhir jīro damūnā abhiśasticātanaḥ ||

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Pad Path

अ॒ग्निः। दे॒वेभिः॑। मनु॑षः। च॒। ज॒न्तुऽभिः॑। त॒न्वा॒नः। य॒ज्ञम्। पु॒रु॒ऽपेश॑सम्। धि॒या। र॒थीः। अ॒न्तः। ई॒य॒ते॒। साध॑दिष्टिऽभिः। जी॒रः। दमू॑नाः। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽचात॑नः॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:3» Mantra:6 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:21» Mantra:1 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर अग्निविद्या के उपदेश को कहते हैं।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जो (अभिशस्तिचातनः) सब ओर से हिंसा की याचना करता (दमूनाः) और दमनशील (साधदिष्टिभिः) अच्छे प्रकार सिद्ध किई हुई इच्छाओं के साथ (जीरः) वेगवान् (रथीः) जिसके बहुत रथ विद्यमान (जन्तुभिः) मनुष्यों के साथ (मनुषः) मनुष्यों को (तन्वानः) विस्तार अर्थात् उनको वृद्धि देता हुआ और (देवेभिः) दिव्यगुणों के साथ (अग्निः) अग्नि (ईयते) जाता है तथा (धिया) कर्म से (पुरुपेशसम्) बहुत रूपोंवाले (यज्ञम्) प्राप्त संसार को सिद्ध करता है, उसको जानो ॥६॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जो अग्नि सामान्य रूप से सब पदार्थों को पुष्ट करता वा विशेष रूप से उनको नष्ट करता वा पृथिव्यादिकों के भीतर व्याप्त है अर्थात् उनके प्रत्येक परमाणु के साथ है वा जिससे बहुत व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह अग्नि विशेषता से जानने योग्य है ॥६॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरग्निविद्यामाह।

Anvay:

हे मनुष्या योऽभिशस्तिचातनो दमूनाः साधदिष्टिभिः सह जीरो रथीर्जन्तुभिः सह मनुषस्तन्वानो देवेभिः सहाग्निरन्तरीयते धिया पुरुपेशसं यज्ञं साध्नोति तं विजानीत॥६॥

Word-Meaning: - (अग्निः) पावकः (देवेभिः) दिव्यैर्गुणैः (मनुषः) मनुष्यान् (च) अन्यान् भूतिमतः पदार्थान् (जन्तुभिः) मनुष्यैः। जन्तव इति मनुष्यना०। निघं०२। ३। (तन्वानः) विस्तृणानः (यज्ञम्) सङ्गतं संसारम् (पुरुपेशसम्) बहुरूपम् (धिया) कर्मणा (रथीः) बहवो रथा विद्यन्ते यस्य सः (अन्तः) मध्ये (ईयते) गच्छति (साधदिष्टिभिः) साधाः संसिद्धा दिष्टयश्च ताभिः (जीरः) वेगवान् (दमूनाः) दमनशीलः (अभिशस्तिचातनः) योऽभिशस्ति हिंसां चातयति सः ॥६॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्योऽग्निः सामान्यरूपेण सर्वान् पुष्णाति विशेषरूपेण हिनस्ति पृथिव्यादीनामन्तः प्राप्तोऽस्ति येन बहवो व्यवहाराः सिध्यन्ति सोऽग्निर्विज्ञातव्यः॥६॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो अग्नी सामान्यरूपाने सर्व पदार्थांना पुष्ट करतो किंवा विशेष रूपाने नष्ट करतो व पृथ्वी इत्यादीमध्ये व्याप्त आहे, ज्याच्यामुळे पुष्कळ व्यवहार सिद्ध होतात, तो अग्नी माणसांनी विशेषत्वाने जाणावा. ॥ ६ ॥