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वै॒श्वा॒न॒राय॑ पृथु॒पाज॑से॒ विपो॒ रत्ना॑ विधन्त ध॒रुणे॑षु॒ गात॑वे। अ॒ग्निर्हि दे॒वाँ अ॒मृतो॑ दुव॒स्यत्यथा॒ धर्मा॑णि स॒नता॒ न दू॑दुषत्॥

English Transliteration

vaiśvānarāya pṛthupājase vipo ratnā vidhanta dharuṇeṣu gātave | agnir hi devām̐ amṛto duvasyaty athā dharmāṇi sanatā na dūduṣat ||

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Pad Path

वै॒श्वा॒न॒राय॑। पृ॒थु॒ऽपाज॑से। विपः॑। रत्ना॑। वि॒ध॒न्त॒। ध॒रुणे॑षु। गात॑वे। अ॒ग्निः। हि। दे॒वान्। अ॒मृतः॑। दु॒व॒स्यति॑। अथ॑। धर्मा॑णि। स॒नता॑। न। दू॒दु॒ष॒त्॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:3» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:8» Varga:20» Mantra:1 | Mandal:3» Anuvak:1» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ग्यारह ऋचावाले तीसरे सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों का विषय वर्णन करते हैं।

Word-Meaning: - जैसे (अमृतः) मरणधर्मरहित (अग्निः) अग्नि के समान विद्वान् (हि) ही (देवान्) दिव्य गुणोंवाले पृथिव्यादिकों की (दुवस्यति) सेवा करता (अथ) अनन्तर इसके (न) नहीं (दूदुषत्) दूषित काम कराता वैसे (विपः) मेधावी जन (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों में प्रकाशमान (पृथुपाजसे) महाबली (गातवे) और स्तुति करनेवाले के लिये (सनता) सनातन (रत्ना) रमणीय रत्नों (धर्माणि) और धर्मों को तथा (धरुणेषु) आधारों में रत्नरूपी रमणीय धनों को (विधन्त) सेवन करते हैं ॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अपने सनातन गुण, कर्म, स्वभावों को सेवता है, कभी दोषी नहीं होता, वैसे विद्वान् जन जिज्ञासुओं के हित के लिये विद्या देके अपने-अपने स्वभावों को भूषित करते हैं, कभी धर्माचरण से दूषित नहीं होते हैं ॥१॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वद्विषयमाह।

Anvay:

यथाऽमृतोऽग्निर्हि देवान् पृथिव्यादीन् दुवस्यत्यथ न दूदुषत्तथा विपो वैश्वानराय पृथुपाजसे गातवे सनता रत्ना धर्माणि च धरुणेषु रत्ना विधन्त ॥१॥

Word-Meaning: - (वैश्वानराय) विश्वेषु नरेषु राजमानाय (पृथुपाजसे) महाबलाय (विपः) मेधाविनः (रत्ना) रत्नानि रमणीयानि धनानि (विधन्त) सेवन्ते (धरुणेषु) आधारेषु (गातवे) स्तावकाय (अग्निः) पावक इव (हि) खलु (देवान्) दिव्यान् गुणान् (अमृतः) मरणधर्मरहितः (दुवस्यति) परिचरति (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (धर्माणि) (सनता) सनतानि सनातनानि (न) निषेधे (दूदुषत्) दूषयति ॥१॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पावकः स्वकीयान् सनातनान् गुणकर्मस्वभावान् सेवते कदाचिन्न दुष्यति तथैव विद्वांसो जिज्ञासुहिताय विद्या दत्वा स्वस्वभावान् भूषयन्ति न कदाचिदधर्माचरणेन दुष्यन्ति ॥१॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी आपल्या सनातन गुणकर्म स्वभावाचे ग्रहण करतो, कधी दोषी नसतो तसे विद्वान जिज्ञासूंच्या हितासाठी विद्या शिकवितात व आपापल्या स्वभावाला भूषणावह ठरतात. कधी अधर्माचरण करीत नाहीत. ॥ १ ॥