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कृ॒धि रत्नं॑ सुसनित॒र्धना॑नां॒ स घेद॑ग्ने भवसि॒ यत्समि॑द्धः। स्तो॒तुर्दु॑रो॒णे सु॒भग॑स्य रे॒वत्सृ॒प्रा क॒रस्ना॑ दधिषे॒ वपूं॑षि॥

English Transliteration

kṛdhi ratnaṁ susanitar dhanānāṁ sa ghed agne bhavasi yat samiddhaḥ | stotur duroṇe subhagasya revat sṛprā karasnā dadhiṣe vapūṁṣi ||

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Pad Path

कृ॒धि। रत्न॑म्। सु॒ऽस॒नि॒तः॒। धना॑नाम्। सः। घ॒। इत्। अ॒ग्ने॒। भ॒व॒सि॒। यत्। समि॑द्धः। स्तो॒तुः। दु॒रो॒णे। सु॒ऽभग॑स्य। रे॒वत्। सृ॒प्रा। क॒रस्ना॑। द॒धि॒षे॒। वपूं॑षि॥

Rigveda » Mandal:3» Sukta:18» Mantra:5 | Ashtak:3» Adhyay:1» Varga:18» Mantra:5 | Mandal:3» Anuvak:2» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (सुसनितः) उत्तम प्रकार दानविभागकारी (अग्ने) बिजुली के समान शीघ्र धनवृद्धिकर्त्ता ! (यत्) जो आप (समिद्धः) प्रकाशमान अग्नि के सदृश प्रकाशमान होते (सः, घ) सो ही (धनानाम्) सुवर्ण आदि रूप धनों में (रत्नम्) उत्तम धन को (कृधि) संयुक्त कीजिये (सुभगस्य) उत्तम ऐश्वर्य्य और (स्तोतुः) हवनकर्त्ता वा प्रशंसाकर्त्ता के (इत्) समान (दुरोणे) गृह में जो (सृप्रा) अभीष्टस्थान की प्राप्तिकारक (करस्ना) कर्मों की शुद्धिकारक आपके बाहुओं और (रेवत्) उत्तमधनयुक्त (वपूंषि) रूपवत् शरीरों को (दधिषे) धारण करते हो वह आप हम लोगों से आदर करने योग्य हो ॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! आप लोगों को चाहिये कि मनुष्यों को उत्तम प्रकार शिक्षा तथा पुरुषार्थ से युक्त और विद्या धनयुक्त करके उत्तम सभ्य चिरञ्जीवी जन बनाइये ॥५॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह अठारहवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे सुसनितरग्ने ! यद्यस्त्वं समिद्धोऽग्निरिव सुसमिद्धो भवसि स घ धनानां रत्नं कृधि सुभगस्य स्तोतुरिद्दुरोणे यौ सृप्रा करस्ना ते भवतस्ताभ्यां रेवद्वयूंषि च दधिषे स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥५॥

Word-Meaning: - (कृधि) कुरु (रत्नम्) रमणीयन्धनम् (सुसनितः) सुष्ठुसंविभाजक (धनानाम्) सुवर्णादीनाम् (सः) (घ) एव (इत्) इव (अग्ने) विद्युद्वद्धनवर्द्धक (भवसि) (यत्) यः (समिद्धः) प्रदीप्तः (स्तोतुः) ऋत्विजः प्रशंसकस्य (दुरोणे) गृहे (सुभगस्य) वरैश्वर्य्यस्ये (रेवत्) प्रशस्तधनयुक्तम् (सृप्रा) सर्प्पन्ति प्राप्नुवन्ति याभ्यां तौ (करस्ना) बाहू। करस्नौ बाहू कर्मणाम्प्रस्नातारौ। निरु०। ६। १७। (दधिषे) धरसि (वपूंषि) रूपवन्ति शरीराणि ॥५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्यान्सुक्षिक्ष्य पुरुषार्थेन संयोज्य विद्याधनयुक्तान् कृत्वा सुसभ्यान्दीर्घायुषः संपादयेयुरिति ॥५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टादशं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! तुम्ही माणसांना उत्तम प्रकारे शिक्षण द्या. पुरुषार्थाने व विद्या-धनाने युक्त करून उत्तम सभ्य चिरंजीवी बनवा. ॥ ५ ॥