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यया॑ र॒ध्रं पा॒रय॒थात्यंहो॒ यया॑ नि॒दो मु॒ञ्चथ॑ वन्दि॒तार॑म्। अ॒र्वाची॒ सा म॑रुतो॒ या व॑ ऊ॒तिरो षु वा॒श्रेव॑ सुम॒तिर्जि॑गातु॥

English Transliteration

yayā radhram pārayathāty aṁho yayā nido muñcatha vanditāram | arvācī sā maruto yā va ūtir o ṣu vāśreva sumatir jigātu ||

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Pad Path

यया॑। र॒ध्रम्। पा॒रय॑थ। अति॑। अंहः॑। यया॑। नि॒दः। मु॒ञ्चथ॑। व॒न्दि॒तार॑म्। अ॒र्वाची॑। सा। म॒रु॒तः॒। या। वः॒। ऊ॒तिः। ओ इति॑। सु। वा॒श्राऽइ॑व। सु॒ऽम॒तिः। जि॒गा॒तु॒॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:34» Mantra:15 | Ashtak:2» Adhyay:7» Varga:21» Mantra:5 | Mandal:2» Anuvak:4» Mantra:15


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे (मरुतः) मरणधर्मा मनुष्यो ! (या) जो (ऊतिः) रक्षा (सुमतिः) और सुन्दर बुद्धि (ओ) प्रेरणाओं में (वः) तुम लोगों की (वाश्रेव) मनोहर के समान (सुजिगातु) प्रशंसा करें वा (यया) जिससे (रध्रम्) अच्छे प्रकार की सिद्धि को (अतिपारयथ) अतीव पार पहुँचाओ और (अंहः) अपराध को निवृत्त करो वा (यया) जिससे (निदः) निन्दाओं को (मुञ्चथ) मोचो अर्थात् छोड़ो (सा) वह (अर्वाची) घोड़ों को प्राप्त होनेवाली कोई क्रिया (वन्दितारम्) वन्दना करनेवाले को प्राप्त हो ॥१५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य जिस क्रिया से अधर्म और निन्दा करनेवाले का त्याग और धर्म वा प्रशंसा करनेवाले का ग्रहण रक्षा बुद्धि की वृद्धि हो, उस क्रिया को निरन्तर करें अर्थात् सदा निन्दा का त्याग और स्तुति का स्वीकार करें ॥१५॥ इस सूक्त में विद्वान् और पवन के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह चौतीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मरुतो योतिः सुमतिरो वो वाश्रेव सुजिगातु यया रध्रमति पारयथांहो निवारयथ यया निदो मुञ्चथ साऽर्वाची वन्दितारं प्राप्नोतु ॥१५॥

Word-Meaning: - (यया) क्रियया (रध्रम्) संराधनम् (पारयथ) (अति) (अंहः) अपराधम् (यया) (निदः) निन्दकान् (मुञ्चथ) (वन्दितारम्) स्तावकम् (अर्वाची) याऽर्वणोऽश्वानञ्चति सा (सा) (मरुतः) (या) (वः) युष्मान् (ऊतिः) रक्षा (ओ) प्रेरणेषु (सु) (वाश्रेव) कमनीय इव (सुमतिः) सुष्ठुप्रज्ञा (जिगातु) प्रशंसतु ॥१५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्या यया क्रिययाऽधर्मनिन्दकत्यागो धर्मप्रशंसितग्रहणं रक्षा बुद्धिवर्द्धनं स्यात्तां क्रियां सततं कुर्वन्तु सदा निन्दावर्जनं स्तुतिस्वीकरणं कुर्युरिति ॥१५॥ अत्र विद्वद्वायुगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुस्त्रिंशं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या क्रियेने अधर्म व निंदा करणाऱ्यांचा त्याग व धर्माची प्रशंसा करणाऱ्याचे ग्रहण, रक्षण, बुद्धिवर्धन होईल ती क्रिया माणसांनी निरंतर करावी, अर्थात् सदैव निंदेचा त्याग व स्तुतीचा स्वीकार करावा. ॥ १५ ॥