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धा॒रय॑न्त आदि॒त्यासो॒ जग॒त्स्था दे॒वा विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः। दी॒र्घाधि॑यो॒ रक्ष॑माणा असु॒र्य॑मृ॒तावा॑न॒श्चय॑माना ऋ॒णानि॑॥

English Transliteration

dhārayanta ādityāso jagat sthā devā viśvasya bhuvanasya gopāḥ | dīrghādhiyo rakṣamāṇā asuryam ṛtāvānaś cayamānā ṛṇāni ||

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Pad Path

धा॒रय॑न्तः। आ॒दि॒त्यासः॑। जग॑त्। स्थाः। दे॒वाः। विश्व॑स्य। भुव॑नस्य। गो॒पाः। दी॒र्घऽधि॑यः। रक्ष॑माणाः। अ॒सु॒र्य॑म्। ऋ॒तऽवा॑नः। चय॑मानाः। ऋ॒णानि॑॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:27» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:7» Varga:6» Mantra:4 | Mandal:2» Anuvak:3» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो जो (जगत्) चर और (स्थाः) अचर को (धारयन्तः) धारण करते हुए (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) निवास के आधार स्थावर और प्राणिमात्र जंगम जगत् के (गोपाः) रक्षक (दीर्घाधियः) बड़ी बुद्धिवाले (असुर्यम्) मूर्खों के धन की (रक्षमाणाः) रक्षा करते हुए (तावानः) सत्य के सेवी (णानि) दूसरों को देने योग्य विद्वानों को (चयमानाः) बढ़ाते हुए (आदित्यासः) पूर्ण विद्यावाले (देवाः) सूर्यादि के तुल्य तेजस्वी विद्वान् लोग बुद्धि से भीतर देखते हैं, वे अध्यापक होने योग्य हैं ॥४॥
Connotation: - इस मन्त्र में (अन्तः,पश्यन्ति) इन दो पदों की अनुवृत्ति पूर्व मन्त्र से आती है। यदि विद्वान् पढ़नेवाले विद्यार्थियों को विद्या न देवें तो वे णी हो जावें, यही ण चुकाना है जो स्वयं पढ़ कर दूसरों को पढ़ाना चाहिये ॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

हे मनुष्या ये जगत्स्था धारयन्तो विश्वस्य भुवनस्य गोपा दीर्घाधियोऽसुर्यं रक्षमाणा तावान णानि चयमाना आदित्यासो देवा अन्तः पश्यन्ति तेऽध्यापका भवितुमर्हन्ति ॥४॥

Word-Meaning: - (धारयन्तः) (आदित्यासः) पूर्णविद्याः (जगत्) जङ्गमम् (स्थाः) स्थावरम् (देवाः) सूर्य्यादय इव विद्वांसः (विश्वस्य) (भुवनस्य) निवासाधिकरणस्य स्थावरस्य जगतः प्राणिसमुदायस्य च (गोपाः) रक्षकाः (दीर्घाधियः) दीर्घा बृहती धीर्येषान्ते। अत्राऽन्येषामपीति पूर्वपदस्य दीर्घः (रक्षमाणाः) (असुर्यम्) असुराणामविदुषां स्वं धनम् (तावानः) य तानि सत्यानि वनन्ति सम्भजन्ति ते (चयमानाः) वर्द्धमानाः (णानि) अन्येभ्यो देयानि विज्ञानानि ॥४॥
Connotation: - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (अन्तःपश्यन्ति) इति पदद्वयमनुवर्त्तते। यदि विद्याध्यापका जिज्ञासुभ्यो विद्या न प्रदद्युस्तर्हि ते णिनः स्युरिदमेव णसमापनं यदधीत्याऽन्येभ्योऽध्यापनं कार्यमिति ॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात (अन्तः, पश्यन्ति) या दोन पदांची अनुवृत्ती पूर्व मंत्राने झालेली आहे. जर विद्वानांनी शिकणाऱ्या विद्यार्थ्यांना विद्या दिली नाही, तर त्यांच्यावर ऋण राहते. या ऋणाची फेड करावयाची असेल तर इतरांना शिकविले पाहिजे. ॥ ४ ॥