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यो अ॑स्मै ह॒व्यैर्घृ॒तव॑द्भि॒रवि॑ध॒त्प्र तं प्रा॒चा न॑यति॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। उ॒रु॒ष्यती॒मंह॑सो॒ रक्ष॑ती रि॒षों॒३॒॑होश्चि॑दस्मा उरु॒चक्रि॒रद्भु॑तः॥

English Transliteration

yo asmai havyair ghṛtavadbhir avidhat pra tam prācā nayati brahmaṇas patiḥ | uruṣyatīm aṁhaso rakṣatī riṣo ṁhoś cid asmā urucakrir adbhutaḥ ||

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Pad Path

यः। अ॒स्मै॒। ह॒व्यैः। घृ॒तव॑त्ऽभिः। अवि॑धत्। प्र। तम्। प्रा॒चा। न॒य॒ति॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। उ॒रु॒ष्यती॑म्। अंह॑सः। रक्ष॑ति। रि॒षः। अं॒होः। चित्। अ॒स्मै॒। उ॒रु॒ऽचक्रिः॑। अद्भु॑तः॥

Rigveda » Mandal:2» Sukta:26» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:7» Varga:5» Mantra:4 | Mandal:2» Anuvak:3» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

Word-Meaning: - जो (उरुचक्रिः) बहुत कर्म करता (अद्भुतः) आश्चर्यरूप गुणकर्मस्वभाववाला (ब्रह्मणः,पतिः) धन कोष का रक्षक (अस्मै) इस विद्वान् के लिये (घृतवद्भिः) बहुत घृतादि पदार्थों से युक्त (हव्यैः) देने योग्य वस्तुओं से (अविधत्) शुभ कार्य साधक पदार्थ बनाता (तम्) उसको (प्राचा) प्राचीन विज्ञान से (प्र,नयति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता (अंहसः) पाप से (रक्षति) बचाता (रिषः) हिंसकों को मारके (अस्मै) इस विद्वान् को (अंहोः) पापाचरणी से (उरुष्यति) पृथक् रखता वह (ईम्) सब ओर से सुख को प्राप्त होता है ॥४॥
Connotation: - जैसे घृत आदि पुष्ट और सुगन्धित द्रव्यों के होम से वायु और वृष्टिजल शुद्ध होके रोगों से प्राणियों को पृथक् कर सबको सुखी करते हैं वैसे उपदेशक लोग अधर्म के निषेधपूर्वक धर्म के ग्रहण से आत्माओं को शुद्ध कर अविद्यादि रोगों को दूर करते हैं, वे कृतकृत्य होते हैं ॥४॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह।

Anvay:

य उरुचक्रिरद्भुतो ब्रह्मणस्पतिरस्मै घृतवद्भिर्हव्यैरविधत्तं प्राचा प्रणयत्यंहसो रक्षतीरिषो ह त्वास्मा अंहोरुरुष्यति स ईं सुखमाप्नोति ॥४॥

Word-Meaning: - (यः) (अस्मै) विदुषे (हव्यैः) दातुमर्हैः (घृतवद्भिः) बहुभिर्घृतादिपदार्थैः सह वर्त्तमानैः (अविधत्) (विदधाति) (प्र) (तम्) (प्राचा) प्राचीनेन विज्ञानेन (नयति) प्राप्नोति (ब्रह्मणः) धननिधेः (पतिः) पालकः (उरुष्यति ) रक्षति (ईम्) (अंहसः) पापाचरणात् (रक्षति) अत्र संहितायामिति दीर्घः (रिषः) हिंसकान् (अंहोः) पापमाचरितुः (चित्) अपि (अस्मै) (उरुचक्रिः) बहुकर्त्ता (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः ॥४॥
Connotation: - ये यथा घृतादिपुष्टसुगन्धादिद्रव्यैर्हुतैर्वायुवृष्टिजले शुद्धे भूत्वा रोगेभ्यः पृथक्कृत्य सर्वान् सुखयतः तथोपदेशका अधर्मनिषेधपुरस्सरेण धर्मग्रहणेनात्मनः शुद्धान् संपाद्याऽविद्यादिरोगात् पृथक् कुर्वन्ति ते कृतकृत्या जायन्ते ॥४॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षड्विंशतितमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जसे घृत इत्यादी पुष्ट व सुगंधित द्रव्याच्या होमाने वायू व जल शुद्ध होऊन रोगापासून पृथक करून सर्वांना सुखी करतात तसे उपदेशक लोक अधर्माचा निषेध व धर्माचे ग्रहण करून आत्म्याला शुद्ध करून अविद्या इत्यादी रोग दूर करून कृतकृत्य होतात. ॥ ४ ॥