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ज॒घान॑ वृ॒त्रं स्वधि॑ति॒र्वने॑व रु॒रोज॒ पुरो॒ अर॑द॒न्न सिन्धू॑न् । बि॒भेद॑ गि॒रिं नव॒मिन्न कु॒म्भमा गा इन्द्रो॑ अकृणुत स्व॒युग्भि॑: ॥

English Transliteration

jaghāna vṛtraṁ svadhitir vaneva ruroja puro aradan na sindhūn | bibheda giriṁ navam in na kumbham ā gā indro akṛṇuta svayugbhiḥ ||

Pad Path

ज॒घान॑ । वृ॒त्रम् । स्वऽधि॑तिः । वना॑ऽइव । रु॒रोज॑ । पुरः॑ । अर॑दत् । न । सिन्धू॑न् । बि॒भेद॑ । गि॒रिम् । नव॑म् । इत् । न । कु॒म्भम् । आ । गाः । इन्द्रः॑ । अ॒कृ॒णु॒त॒ । स्व॒युक्ऽभिः॑ ॥ १०.८९.७

Rigveda » Mandal:10» Sukta:89» Mantra:7 | Ashtak:8» Adhyay:4» Varga:15» Mantra:2 | Mandal:10» Anuvak:7» Mantra:7


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वृत्रं जघान) उपासक के पाप को नष्ट कर रहा है (स्वधितिः-वना-इव) वज्र जैसे वनों को नष्ट करता है (पुरः-रुरोज) मन की वासनाओं को भग्न करता है (सिन्धून्-अरदत्-न) स्यन्दमान विषयप्रवृत्तियों को नहीं चलाता है, बाँध देता है (गिरिं बिभेद) ज्ञानप्रकाश को निगलनेवाले अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न कर देता है। (नवं कुम्भं न-इत्) नए घड़े के समान (स्वयुग्भिः-गाः-आ-अकृणुत) अपने से योग करनेवाले उपासकों के हेतु-उनके लिये वेदवाणियों को आविष्कृत करता है ॥७॥
Connotation: - परमात्मा न केवल अपने उपासकों के साथ योग करता है तथा उनके पापमल और अज्ञानान्धकार को नष्ट करता है, अपितु उनके लिये वेदवाणी को प्रदान करता है ॥७॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वृत्रं जघान) उपासकस्य पापम् “पाप्मा वै वृत्रः” (श० १२।१।५।७) हन्ति (स्वधितिः-वना-इव) वज्रो वनानि नाशयति “स्वधितिः वज्रनाम” [निघं० २।२०] (पुरः-रुरोज) मनांसि “मन एव पुरः” [श० १०।३।५।७] मनोवासनाः भनक्ति नाशयति (सिन्धून्-अरदत्-न) स्यन्दमाना विषयप्रवृत्तीर्न चालयति-बध्नाति (गिरिं बिभेद) निगिरति ज्ञानप्रकाशं तमन्धकारं भिनत्ति (नवं कुम्भं न इत्) नवं दृढं घटमिव (स्वयुग्भिः-गाः आ अकृणुत) स्वयोक्तृभिरुपासकैः-तान्-हेतुं मत्त्वा तेभ्य इत्यर्थः, वेदवाचः-आविष्कृणोति ॥७॥