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इ॒मां मे॑ अग्ने स॒मिधं॑ जुषस्वे॒ळस्प॒दे प्रति॑ हर्या घृ॒ताची॑म् । वर्ष्म॑न्पृथि॒व्याः सु॑दिन॒त्वे अह्ना॑मू॒र्ध्वो भ॑व सुक्रतो देवय॒ज्या ॥

English Transliteration

imām me agne samidhaṁ juṣasveḻas pade prati haryā ghṛtācīm | varṣman pṛthivyāḥ sudinatve ahnām ūrdhvo bhava sukrato devayajyā ||

Pad Path

इ॒माम् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । इ॒ळः । प॒दे । प्रति॑ । ह॒र्य॒ । घृ॒ताची॑म् । वर्ष्म॑न् । पृ॒थि॒व्याः । सु॒दिन॒ऽत्वे । अह्ना॑म् । ऊ॒र्ध्वः । भ॒व॒ । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । दे॒व॒ऽय॒ज्या ॥ १०.७०.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:70» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:2» Varga:21» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:6» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

यहाँ विद्यासूर्य, विद्वान् की विद्या उसकी सहयोगिनी, विद्वान् से विद्या ग्रहण करना, परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना उसे मैत्री करानेवाली होती है, वे मनबुद्धिचित्त अहङ्कार द्वारा साधनीय हैं आदि वर्णन है।

Word-Meaning: - (इडस्पदे) स्तुति के पद-स्थान हृदय में वर्तमान, या विद्यास्थान में वर्तमान, (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् या विद्वन् ! (मे) मेरी (इमां समिधं जुषस्व) इस सम्यक् इन्धनीय-दीपनीय आत्मा को अपने गुणों से प्रकाशनार्थ सेवा में ले अथवा शिष्यभाव से समर्पित तुच्छ उपहाररूप समिधा को सेवन कर-स्वीकार कर (घृताचीम्) अज्ञान रात्रि को (प्रतिहर्य) दूर कर-हटा (सुक्रतो) हे अच्छे कर्मवाले, अच्छे प्रज्ञानवान् ! (देवयज्या) तुझ उपास्य देव की संगति हो, वैसी स्तुति के द्वारा अथवा तुझ विद्वान् देव जैसा मैं हो जाऊँ, ऐसी संगति से (पृथिव्याः-वर्ष्मन्) शरीर के प्राणवर्षण प्राणप्रेरक स्थान हृदय में ध्यान से वर्तमान हो अथवा ज्ञान से हृदय में वर्तमान हो (सुदिनत्वे) मेरे अच्छे दिन के निमित्त (अह्नाम्-ऊर्ध्वः-भव) मेरे समस्त जीवनदिवसों के ऊपर अधिष्ठाता हो ॥१॥
Connotation: - परमात्मा की आत्मभाव से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे मेरे स्तुत्य देव ! तू मेरे हृदय में विराजमान हो। आन्तरिक अन्धकार को दूर करके मेरे आत्मा को अपने प्रकाश से प्रकाशित कर। मुझे अपनी सङ्गति से मेरे जीवन के दिनों के ऊपर संरक्षक बनकर उत्कृष्ट बना। एवं विद्वान् के पास जाकर के प्रार्थना करनी चाहिए कि हे विद्वन् ! शिष्यभाव से प्राप्त मैं अपने को तेरे समर्पित करता हूँ। मेरे आत्मा को अपने ज्ञान से प्रकाशमान बना, अज्ञानान्धकार को दूर कर, अपने जैसा विद्वान् मुझे बना, मेरे हृदय के अन्दर तेरा ज्ञानमय स्वरूप निहित हो जाये। मेरे जीवन के दिनों को ऊँचा बनाने के लिए मेरा संरक्षक बन ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अत्र विद्यासूर्यविदुषो विद्या तत्सहायकरी भवति, विदुषो विद्या ग्राह्या, परमात्मनः स्तुतिप्रार्थनोपासनास्तेन सह मैत्रीं सम्पादयन्ति ताश्च मनबुद्धिचित्ताहङ्कारैः साधनीयाः, इति वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (इडस्पदे) स्तुत्याः पदे स्तुतिस्थाने हृदये वर्तमान ! यद्वा ज्ञानप्रकाशस्य स्थाने विद्यास्थाने वर्तमान ! “ईडे स्तुतिकर्मणः, इन्धतेर्वा” [निरु० ८।८] (अग्ने) अग्रणायक परमात्मन् ! यद्वा विद्वन् ! (मे) मम (इमां समिधं जुषस्व) एतां समिन्धनीयां सम्यक् प्रकाशन्यामात्मसमिधं स्वगुणैः प्रकाशनार्थं सेवायां नय यद्वा शिष्यभावनया समर्पितां समिधं तुच्छोपहारभूतां सेवस्व-स्वीकुरु “समित्पाणिः श्रोत्रियं गुरुमभिगच्छ ब्रह्मनिष्ठम्” [मुण्डक उप० १।२] (घृताचीम्) अज्ञानरात्रिम् “घृताची रात्रिनाम” [निघ० १।७] (प्रतिहर्य) प्रतिगमय दूरं कुरु “हर्यति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (सुक्रतो) हे सुकर्म सुप्रज्ञान ! (देवयज्या) उपास्यदेवस्य तव सङ्गतिर्यथा स्यात् तथाभूतया भवत्सङ्गत्याः (पृथिव्याः-वर्ष्मन्) शरीरस्य “यच्छरीरं सा पृथिवी” [ऐ० आ० २।३।३] प्राणवर्षणस्थाने प्राणप्रेरकस्थाने हृदये वर्तमानो भव ध्यानेन ज्ञानेन वा हृदये स्थानं प्राप्नुहि (सुदिनत्वे) मम शोभनदिननिमित्तं (अह्नाम्-ऊर्ध्वः-भव) मम समस्तजीवनदिवसानामुपरि-अधिष्ठाता भव ॥१॥