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पृथ॒क्प्राय॑न्प्रथ॒मा दे॒वहू॑त॒योऽकृ॑ण्वत श्रव॒स्या॑नि दु॒ष्टरा॑ । न ये शे॒कुर्य॒ज्ञियां॒ नाव॑मा॒रुह॑मी॒र्मैव ते न्य॑विशन्त॒ केप॑यः ॥

English Transliteration

pṛthak prāyan prathamā devahūtayo kṛṇvata śravasyāni duṣṭarā | na ye śekur yajñiyāṁ nāvam āruham īrmaiva te ny aviśanta kepayaḥ ||

Pad Path

पृथ॑क् । प्र । आ॒य॒न् । प्र॒थ॒माः । दे॒वऽहू॑तयः । अकृ॑ण्वत । श्र॒व॒स्या॑नि । दु॒स्तरा॑ । न । ये । शे॒कुः । य॒ज्ञिया॑म् । नाव॑म् । आ॒ऽरुह॑म् । ई॒र्मा । ए॒व । ते । नि । अ॒वि॒श॒न्त॒ । केप॑यः ॥ १०.४४.६

Rigveda » Mandal:10» Sukta:44» Mantra:6 | Ashtak:7» Adhyay:8» Varga:27» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:4» Mantra:6


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (प्रथमाः) श्रेष्ठ (देवहूतयः) दिव्यगुणों, मुमुक्षुगुणों को अपने अन्तःकरण में ले आनेवाले-बिठा लेनेवाले स्तुतिकर्ता जन (श्रवस्यानि दुष्टरा-अकृण्वत) श्रवणीय अर्थात् श्रवण-मनन निदिध्यासन-साक्षात्कार-नामक जो अन्य अश्रेष्ठ लोगों द्वारा आचरण में लाने के लिए दुस्तर हैं, छूरी की धारा के समान हैं, उन्हें वे श्रेष्ठजन सेवक करते हैं (पृथक् प्र आयन्) संसार नदी से पृथक्-प्रथित पार अर्थात् मोक्षधाम को प्राप्त करते है और जो अप्रथम-अश्रेष्ठ (केपयः) कुत्सित, शोधने योग्य कर्म के करनेवाले हैं (ये यज्ञियां नावम्-आरुहं न शेकुः) जो अध्यात्मयज्ञसम्बन्धी नौका-उपासनारूप नौका पर आरोहण नहीं कर सकते (ते-ईर्मा-एव नि अविशन्त) वे इसी लोक में निविष्ट रहते हैं या पितृ-ऋण के चुकाने में अर्थात पुत्र-पौत्र आदि उत्पन्न करने-कराने में लगे रहते हैं, वे मोक्षभागी नहीं बनते ॥६॥
Connotation: - अध्यात्मगुणों को धारण करनेवाले मुमुक्षु जन ऊँचे उठते हुए संसारनदी को पार करके मोक्षधाम को प्राप्त होते हैं। निकृष्ट जन उन दिव्यगुणों को धारण करने में असमर्थ होकर इसी संसार में जन्म-जन्मान्तर धारण करते रहते हैं, पुत्रादि के मोह में पड़े रहते हैं ॥६॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (प्रथमाः) श्रेष्ठजनाः (देवहूतयः) दिव्यगुणान् देवधर्मान् मुमुक्षुगुणानाह्वयन्ति निजान्तःकरणे समवेतानि कुर्वन्ति ये ते स्तोतारः (श्रवस्यानि दुष्टरा-अकृण्वत) श्रवणीयानि श्रवणमनन-निदिध्यासनसाक्षात्काराख्यानि अन्यैरप्रथमैरश्रेष्ठैर्दुरनुकरणीयानि ‘क्षुरस्य धारेव दुरत्ययानि’ कुर्वन्त्यनुतिष्ठन्ति, ते (पृथक् प्रायन्) संसारनद्याः पृथक् प्रथितं पारं मोक्षधाम प्राप्नुवन्ति। येऽप्रथमा अश्रेष्ठाः (केपयः) कुत्सितस्य शोधनीयकर्मणः कर्त्तारः “केपयः कपूया भवन्ति, कपूयमिति पुनाति कर्म कुत्सितम्” [निरु० ५।२४] (ये यज्ञियां नावम्-आरुहं न शेकुः) ये खलु-अध्यात्मयज्ञसम्बन्धिनीं नावमुपासनामारोढुं न शक्नुवन्ति (ते-ईर्मा-एव न्यविशन्त) ते-इहैव लोके निविशन्ते, यद्वा “ऋणे हैव, ऋणे हैव” [निघ० ५।२४] पितॄणनिवारणव्यवहारे पुत्रोत्पत्तिकरणे गृहस्थे निविशन्ते, न मोक्षभाजो भवन्ति ॥६॥