Go To Mantra

मू॒रा अ॑मूर॒ न व॒यं चि॑कित्वो महि॒त्वम॑ग्ने॒ त्वम॒ङ्ग वि॑त्से । शये॑ व॒व्रिश्चर॑ति जि॒ह्वया॒दन्रे॑रि॒ह्यते॑ युव॒तिं वि॒श्पति॒: सन् ॥

English Transliteration

mūrā amūra na vayaṁ cikitvo mahitvam agne tvam aṅga vitse | śaye vavriś carati jihvayādan rerihyate yuvatiṁ viśpatiḥ san ||

Pad Path

मू॒राः । अ॒मू॒र॒ । न । व॒यम् । चि॒कि॒त्वः॒ । म॒हि॒ऽत्वम् । अ॒ग्ने॒ । त्वम् । अ॒ङ्ग । वि॒त्से॒ । शये॑ । व॒व्रिः । चर॑ति । जि॒ह्वया॑ । अ॒दन् । रे॒रि॒ह्यते॑ । यु॒व॒तिम् । वि॒श्पतिः॑ । सन् ॥ १०.४.४

Rigveda » Mandal:10» Sukta:4» Mantra:4 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:32» Mantra:4 | Mandal:10» Anuvak:1» Mantra:4


Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (चिकित्वः-अमूर) हे चेतनावाले परमात्मन् या चेतानेवाले विद्युद्रूप अग्नि ! अमूढ या अस्थिर ! (अङ्ग) प्रिय (अग्ने) परमात्मन् या विद्युद्रूप अग्नि ! (त्वम्) तू (महित्वं वित्से) विस्तृत जगत् को जानता है या महान् मेघ को प्राप्त होता है (वयं न) हम नहीं जानते (शये वव्रिः-चरति) शयनस्थान जगत् में आवरक-व्याप्त है या मेघ में छिपा हुआ प्राप्त है (जिह्वया-अदन् रेरिह्यते) अपनी आदान शक्ति से ग्रहण करता हुआ अपने में चाट जाता है या मेघों को खाता हुआ सा चाट जाता है (युवतिं विश्पतिः) जैसे युवती पत्नी को गृहस्थ स्नेह से चाटता है ॥४॥
Connotation: - परमात्मा सदा सावधान सर्वज्ञ है, अतः विस्तृत संसार को जानता है। अल्पज्ञ होने से मनुष्य सारे संसार को नहीं जान सकता है। परमात्मा संसार में व्याप्त रहता है, प्रलय में जगत् को चाट जाता है-अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। एवं विद्युत् चमक कर चेतानेवाली है, वह मेघ में छिपी हुई रहती है, उसे अपनी तरङ्गों से खा जाती है-चाट जाती है, तभी वृष्टि होती है। वृष्टि का कारण विद्युत् है ॥४॥
Reads times

BRAHMAMUNI

अत्र श्लेषिकोऽर्थः परमात्मविद्युतोः।

Word-Meaning: - (चिकित्वः) हे चेतानावन्-चेतयितः ! (अमूर) अमूढ ! अस्थिर ! वा (अङ्ग) प्रिय ! (अग्ने) परमात्मन् ! विद्युद्रूपाग्ने ! वा (त्वम्) त्वं खलु (महित्वं वित्से) जगतो विस्तारं वेत्सि, मेघं वा प्राप्नोषि (वयं मूरा न) वयं अज्ञाः न विद्म (शये वव्रिः-चरति) शयनस्थाने जगति मेघे वाऽन्तर्हितः-व्याप्तः-सन् मेघैरावृतो वा प्रकटीभवति सः (जिह्वया-अदन् रेरिह्यते) जिह्वया-निजग्रहणशक्त्या गृह्णन् “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त १।२।९] यद्वा ज्वलयन् निजधारया मेघान् खादन् भृशं लेढि च ‘अभ्रंलिहा विद्युत्’ (युवतिं विश्पतिः) युवतिं भार्यां प्रजापतिः सन्तानपतिर्गृहस्थ इव। अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥४॥