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स आ व॑क्षि॒ महि॑ न॒ आ च॑ सत्सि दि॒वस्पृ॑थि॒व्योर॑र॒तिर्यु॑व॒त्योः । अ॒ग्निः सु॒तुक॑: सु॒तुके॑भि॒रश्वै॒ रभ॑स्वद्भी॒ रभ॑स्वाँ॒ एह ग॑म्याः ॥

English Transliteration

sa ā vakṣi mahi na ā ca satsi divaspṛthivyor aratir yuvatyoḥ | agniḥ sutukaḥ sutukebhir aśvai rabhasvadbhī rabhasvām̐ eha gamyāḥ ||

Pad Path

सः । आ । व॒क्षि॒ । महि॑ । नः॒ । आ । च॒ । स॒त्सि॒ । दि॒वःपृ॑थि॒व्योः । अ॒र॒तिः । यु॒व॒त्योः । अ॒ग्निः । सु॒ऽतुकः॑ । सु॒त्ऽउके॑भिः । अश्वैः॑ । रभ॑स्वत्ऽभिः । रभ॑स्वान् । आ । इ॒ह । ग॒म्याः॒ ॥ १०.३.७

Rigveda » Mandal:10» Sukta:3» Mantra:7 | Ashtak:7» Adhyay:5» Varga:31» Mantra:7 | Mandal:10» Anuvak:1» Mantra:7


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (सः अग्निः) वह सूर्यरूप अग्नि, तू (नः-महि-आवक्षि) हमारे लिये महनीय महत्त्वपूर्ण सुख प्रकाश को भली प्रकार प्राप्त कराता है (युवत्योः-दिवः-पृथिव्योः) परस्पर मिलन धर्मवाले द्युलोक पृथिवलोक के मध्य में (अरतिः) प्रापणशील एक ही स्थान पर न रमण करनेवाला-द्युलोक से पृथिवीलोकपर्यन्त में प्राप्त होनेवाला (आसत्सि) भलीभाँति प्राप्त है (सुतुकः-सुतुकेभिः रभस्वद्भिः) सुगमतया प्राप्त होने योग्य, सुगमतया प्राप्त करानेवाले (रभस्वान् ) वेग से प्राप्त होनेवाला, वेग से प्राप्त करानेवाले (अश्वैः) शीघ्र गतिशक्तिवाले रश्मि-घोड़ों द्वारा (इह-आगम्याः) इस स्थान-लोक पर भलीभाँति प्राप्त हो ॥७॥
Connotation: - सूर्य द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में होता हुआ भी दूर से दूर द्युलोक में तथा पृथिवीलोक में भी सुगमता से प्राप्त करानेवाली रश्मियों द्वारा प्राप्त होता है, उन रश्मियों का प्रकाश सुख देनेवाला है, ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् अपने वंश और समाज या राष्ट्र में रहकर भी दोनों को अपनी ज्ञानधाराओं और शिष्यों द्वारा उन्हें आलोकित करता है ॥७॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (सः अग्निः) स सूर्यरूपोऽग्निः, त्वम् (नः-महि-आवक्षि) अस्मभ्यं महनीयं सुखप्रकाशं प्रापयसि (युवत्योः-दिवः-पृथिव्योः) परस्परं मिश्रणधर्मवतोर्द्युलोकपृथिवीलोकयोर्मध्ये (अरतिः) स्वतेजसा गमनशीलः सन् (आसत्सि) आसीदसि-समन्तात् प्राप्तोऽसि (सुतुकः) सुतुकनः सुगमतया प्रापणयोग्यः सुप्राप्तव्यः (रभस्वान्) वेगवान् शीघ्र-प्रापणशक्तिमान् सन् (सुतुकेभिः-रभस्वद्भिः-अश्वैः) सुतुकनैः सुगमतया प्रापणयोग्यैः-सुप्राप्तव्यैस्तथा वेगवद्भिः-शीघ्रगमनशक्तिमद्भिर्व्याप्तै रश्मिभिः (इह-आगम्याः) अस्मिन् लोके समन्तात् प्राप्तो भवेः ॥७॥