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त्यं चि॒दत्रि॑मृत॒जुर॒मर्थ॒मश्वं॒ न यात॑वे । क॒क्षीव॑न्तं॒ यदी॒ पुना॒ रथं॒ न कृ॑णु॒थो नव॑म् ॥

English Transliteration

tyaṁ cid atrim ṛtajuram artham aśvaṁ na yātave | kakṣīvantaṁ yadī punā rathaṁ na kṛṇutho navam ||

Pad Path

त्यम् । चि॒त् । अत्रि॑म् । ऋ॒त॒ऽजुर॑म् । अर्थ॑म् । अश्व॑म् । न । यात॑वे । क॒क्षीव॑न्तम् । यदि॑ पुन॒रिति॑ । रथ॑म् । न । कृ॒णु॒थः । नव॑म् ॥ १०.१४३.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:143» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:8» Varga:1» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:11» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में अध्यात्मविषय के अध्यापक उपदेशक वासनावाले मनुष्य को वासना से पृथक् करते हैं, शरीर केवल भोगार्थ ही नहीं अध्यात्मसिद्धि के लिये भी है, इत्यादि विषय हैं।

Word-Meaning: - (त्यम्-ऋतजुरम्) उस प्राप्त जरावस्थावाले (अत्रिं चित्) अत्ता, भोक्ता जन को (अर्थं यातवे) अभीष्ट प्राप्त करने के लिए (कक्षीवन्तम्-अश्वं-न) पट्टी से बँधे घोड़े के समान (यदि) जब (रथं न) शिल्पी जैसे रथ को (पुनः-नवं कृणुथः) फिर नया कर देते हैं, ऐसे अध्यापक और उपदेशक अपने अध्यापन और उपदेश से नया जीवन देते हैं ॥१॥
Connotation: - आत्मा शरीर में आकर भोग भोगकर जरा अवस्था को प्राप्त हो जाता है, परन्तु ये शारीरिक इष्टसिद्धि के लिए नहीं है, घोड़ा जैसे कक्षीबन्धन में बँधा होता है, उस ऐसे को दो शिल्पियों की भाँति जो रथ को नया बना देते हैं, उसकी भाँति अध्यापक और उपदेशक द्वारा अध्यापन और उपदेश सुनता है, तो नया बन जाता है ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अस्मिन् सूक्तेऽध्यात्मविषयस्याध्यापकोपदेशकौ वासनावन्तं जनं वासनातः पृथक् कुरुतः, शरीरं केवलं न भोगसिद्धयेऽध्यात्म-सिद्धयेऽपीति ज्ञापयत इत्यादयो विषयाः सन्ति।

Word-Meaning: - (त्यम्-ऋतजुरम्-अत्रिं चित्) हे-अश्विनौ ! “चतुर्थमन्त्रात्” अध्यापकोपदेशकौ “अश्विनौ-अध्यापकोपदेशकौ” [ऋ० ५।७८।३ दयानन्दः] ऋता प्राप्ता-जुर्जरा येन तं प्राप्तजरम् “जॄ वयोहानौ” [क्र्यादि०] ततो क्विप् ‘उत्वं छान्दसम्’ अत्तारं भोक्तारं जनम् “अत्रिः सुखानामत्ता-भोक्ता” [ऋ० १।१३९।९ दयानन्दः] “अदेस्त्रिनिश्च त्रिप्” [उणादि० ४।६८] इति अद धातोः-त्रिप् प्रत्ययः (अर्थं यातवे) अभीष्टं प्राप्तुम् “या धातोस्तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः” “तुमर्थेसेऽसेन...तवेनः” [अष्टा० ३।४।९] इत्यनेन (कक्षीवन्तम्-अश्वं-न) कक्ष्यया बद्धमश्वमिव (यदि) यद्वा (रथं न) शिल्पिनौ रथं यथा (पुनः-नवं कृणुथः) पुनर्नवं कुरुथः स्वाध्यापनोपदेशाभ्याम् ॥१॥