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न वा उ॑ दे॒वाः क्षुध॒मिद्व॒धं द॑दुरु॒ताशि॑त॒मुप॑ गच्छन्ति मृ॒त्यव॑: । उ॒तो र॒यिः पृ॑ण॒तो नोप॑ दस्यत्यु॒तापृ॑णन्मर्डि॒तारं॒ न वि॑न्दते ॥

English Transliteration

na vā u devāḥ kṣudham id vadhaṁ dadur utāśitam upa gacchanti mṛtyavaḥ | uto rayiḥ pṛṇato nopa dasyaty utāpṛṇan marḍitāraṁ na vindate ||

Pad Path

न । वै । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वाः । क्षुध॑म् । इत् । व॒धम् । द॒दुः॒ । उ॒त । आशि॑तम् । उप॑ । ग॒च्छ॒न्ति॒ । मृ॒त्यवः॑ । उ॒तो इति॑ । र॒यिः । पृ॒ण॒तः । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । उ॒त । अपृ॑णन् । म॒र्डि॒तार॑म् । न । वि॒न्द॒ते॒ ॥ १०.११७.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:117» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:22» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:10» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में दान का महत्त्व बताया है, दान लेने के अधिकारी या पात्र तथा दान अवश्य देना चाहिये, दान से धन क्षीण नहीं होता अपितु परमात्मा की प्राप्ति कही है।

Word-Meaning: - (देवाः) विद्वान् जन (क्षुधम्-इत्) केवल भूख-अन्न की अप्राप्ति को ही (वधं न-उ) मृत्यु नहीं (ददुः) धारण करते हैं-मानते हैं (आशितम्-उत) भोजन खाये हुए भरे पेट को भी (मृत्यवः-उप गच्छन्ति) मृत्युवें प्राप्त होती हैं अर्थात् अनेक प्रकार से, भूखे की तो एक ही प्रकार की मृत्यु होती है, अन्न के अभाव से (उत पृणतः) और दूसरे को तृप्त करते हुए का (रयिः-न-उप दस्यति) धन क्षीण नहीं होता है (अपृणन्) अन्य को तृप्त न करता हुआ (मर्डितारम्) सुख देनेवाले परमात्मा को (न-विन्दते) प्राप्त नहीं करता है ॥१॥
Connotation: - भूखा ही मरता है अन्न के अभाव से, ऐसी बात नहीं, किन्तु भरे पेट बहुत अन्न धन सम्पत्ति रखते हुए के पास मृत्युवें अनेक प्रकार से जाती हैं अर्थात् मृत्युवें होती हैं, अन्न के अधिक खाने से रोगी होकर, अध्यशन-खाने पर खाना खाने से, विषमिश्रित, अन्न के अधिक खाने से और चोरादि के द्वारा हो जाती हैं, दूसरे को तृप्त करने से अन्नधन क्षीण नहीं होता है, अवसर पर फिर प्राप्त हो जाता है और जो दूसरों को तृप्त नहीं करता है, वह सुख देनेवाले परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अस्मिन् सूक्ते दानस्य महत्त्वं वर्ण्यते, दानमवश्यं कर्तव्यम्, दानस्याधिकारिणः के सन्तीत्यपि वर्ण्यते। दानेन धनं न क्षीयतेऽपि तु तेन परमात्मप्राप्तिर्भवतीति वर्ण्यते।

Word-Meaning: - (देवाः क्षुधम्-इत् वधं न-उ ददुः) विद्वांसः खलु क्षुधं बुभुक्षामन्नाप्राप्तिमेव वधं मृत्युं न धारयन्ति “अत्र दा धातुर्धारणेऽर्थे दण्डो ददतेर्धारयतिकर्मणः-अक्रूरो ददते मणिम्” [निरु० २।२] (आशितम्-उत मृत्यवः-उप गच्छन्ति) भोजनमाशितवन्तं भुक्तवन्तम् “आशितः कर्त्ता” [अष्टा० ६।१।२०] अपि विविधप्रकारेण बहुविधा मृत्यवः-प्राप्नुवन्ति ‘क्षुधार्तस्य तु मृत्युरेकप्रकारकोऽन्नाभावः’ बहुभक्षकस्य-प्रचुरान्नरक्षकस्य तु बहुविधा मृत्यवो भवन्ति-अधिकभोजनम्, अध्यशनम्, अन्यद्वारापहरणं राजभयम्, इत्येवमादयः (उत-पृणतः-रयिः-न-उप दस्यति) धनेनान्यान् तर्पयतो जनस्य धनं न क्षीयते (अपृणन् मर्डितारं न विन्दते) अपि च-अन्यं न पृणन् सुखयितारं सुखदातारं परमात्मानं न प्राप्नुवन्ति ॥१॥