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इन्द्र॒ पिब॑ प्रतिका॒मं सु॒तस्य॑ प्रातःसा॒वस्तव॒ हि पू॒र्वपी॑तिः । हर्ष॑स्व॒ हन्त॑वे शूर॒ शत्रू॑नु॒क्थेभि॑ष्टे वी॒र्या॒३॒॑ प्र ब्र॑वाम ॥

English Transliteration

indra piba pratikāmaṁ sutasya prātaḥsāvas tava hi pūrvapītiḥ | harṣasva hantave śūra śatrūn ukthebhiṣ ṭe vīryā pra bravāma ||

Pad Path

इन्द्र॑ । पिब॑ । प्र॒ति॒ऽका॒मम् । सु॒तस्य॑ । प्रा॒तः॒ऽसा॒वः । तव॑ । हि । पू॒र्वऽपी॑तिः । हर्ष॑स्व । हन्त॑वे । शू॒र॒ । शत्रू॑न् । उ॒क्थेभिः॑ । ते॒ । वी॒र्या॑ । प्र । ब्र॒वा॒म॒ ॥ १०.११२.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:112» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:12» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में परमात्मा स्तुतिकर्ताओं का मित्र, उनका कल्याणसाधक, अपने आनन्द का दाता तथा स्तुतिकर्ताओं के लिये मनोवाञ्छित कामनाओं का पूरण करनेवाला है इत्यादि विषय हैं।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (सुतस्य) निष्पादित उपासनारस को (प्रतिकामं पिब) कामना के अनुरूप पान कर ग्रहण कर अर्थात् जिस कामना को लेकर हम उपासनारस को समर्पित करते हैं, उसकी पूर्ति के लिये इसे स्वीकार कर (तव) तेरा (प्रातः सावः-हि) यह प्रातः स्तोतव्य उपासनारस (पूर्वपीतिः) प्रमुख पीति पान करने योग्य भेंट है (हर्षस्व) इसे प्राप्त कर तू हर्षित हो (शूरः) पराक्रमी तू (शत्रून्) मेरे कामादि शत्रुओं को (हन्तवे) हनन करने के लिये (उक्थेभिः) प्रशस्त वचनों द्वारा (ते वीर्या) तेरे गुण बलों को (प्र ब्रवाम) हम प्रकृष्टरूप में बोलते हैं ॥१॥
Connotation: - मनुष्य अपनी कामना के अनुरूप जैसी वह कामना करता है, वैसी उसके अनुरूप उसकी स्तुति उपासना करता है और करनी चाहिये, विशेषरूप से अपने अन्दर के कामादि दोषों को दूर करने के लिये प्रशस्त वचनों द्वारा परमात्मा को स्मरण करे ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अस्मिन् सूक्ते परमात्मा स्तोतॄणां मित्रं तेषां कल्याणसाधकः स्वानन्दस्य प्रदाता तथा स्तुतिकर्तॄभ्यो मनोवाञ्छितकामानां पूरयिताऽस्तीत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (सुतस्य) सुतं निष्पादितमुपासनारसम्, ‘व्यत्ययेन षष्ठी द्वितीयास्थाने’ (प्रतिकामं पिब) कामं कामं प्रतिकामानुरूपं यं यं काममनुलक्ष्य सम्पादितमुपासनारसं तत्पूर्त्यर्थं पिब स्वीकुरु (तव प्रातः सावः-हि पूर्वपीतिः) तव प्रातरेव स्तोतव्यः-उपासनारसः, एषा प्रमुखपीतिस्ते नाऽन्यापेक्ष्यते त्वया (हर्षस्व) एतां पीतिं प्राप्य हर्षितो भव (शूर शत्रून् हन्तवे) हे पराक्रमिन् ! मदीयकामादीन् शत्रून् हन्तुं (उक्थेभिः-ते वीर्या प्र ब्रवाम) प्रशस्तवचनैस्तव गुणवीर्याणि प्रकृष्टं ब्रूम ॥१॥