Go To Mantra

ऋ॒तस्य॒ हि सद॑सो धी॒तिरद्यौ॒त्सं गा॑र्ष्टे॒यो वृ॑ष॒भो गोभि॑रानट् । उद॑तिष्ठत्तवि॒षेणा॒ रवे॑ण म॒हान्ति॑ चि॒त्सं वि॑व्याचा॒ रजां॑सि ॥

English Transliteration

ṛtasya hi sadaso dhītir adyaut saṁ gārṣṭeyo vṛṣabho gobhir ānaṭ | ud atiṣṭhat taviṣeṇā raveṇa mahānti cit saṁ vivyācā rajāṁsi ||

Pad Path

ऋ॒तस्य॑ । हि । सद॑सः । धी॒तिः । अद्यौ॑त् । सम् । गा॒ऋष्टे॒यः । वृ॒ष॒भः । गोभिः॑ । आ॒न॒ट् । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒वि॒षेण॑ । रवे॑ण । म॒हान्ति॑ । चि॒त् । सम् । वि॒व्या॒च॒ । रजां॑सि ॥ १०.१११.२

Rigveda » Mandal:10» Sukta:111» Mantra:2 | Ashtak:8» Adhyay:6» Varga:10» Mantra:2 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:2


Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (ऋतस्य) वेदरूप ज्ञान का तथा (सदसः) सब पदार्थ या लोक-लोकान्तर जिसमें ठहरते हैं, ऐसे ब्रह्माण्डरूप सदन का (हि) अवश्य (धीतिः) धारक परमात्मा (अद्यौत्) प्रकाशित है-प्रकाशमान है (गार्ष्टेयः-वृषभः) एक बार प्रसूता से उत्पन्न वृषभ की भाँति (गोभिः समानट्) गोओं के साथ सम्यग् व्याप्त होता है उन पर अधिकार करता है, उसके समान परमात्मा सब पदार्थों में सम्यग् व्याप्त होता है अथवा आकाश में गर्जनेवाली विद्युदग्नि से सम्बन्ध रखनेवाला, उसका प्रवर्त्तक मेघ की भाँति सुखवर्षक वेदवाणी से स्तुति करनेवालों में व्याप्त होता है (तविषेण) महान् (रवेण) शब्द से-वेदरूप घोष से (उत् अतिष्ठत्) ऊपर स्थित होता है (महान्ति चित्) महान्-बहुत सारे (रजांसि) लोक-लोकान्तरों को (विव्याच) व्याप्त होता है ॥२॥
Connotation: - परमात्मा वेद तथा ब्रह्माण्ड का धारक स्वयं प्रकाशक स्वरूप है, वह वृषभ के समान बलवान् या मेघ के समान सुखवर्षक, स्तुति करनेवालों में व्याप्त, वेद के उपदेश से उनके अन्दर उत्कृष्टरूप में व्याप्त और लोक-लोकान्तर में व्याप्त है ॥२॥
Reads times

BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - (ऋतस्य सदसः-हि धीतिः-अद्यौत्) वेदरूपज्ञानस्य अथ च सीदन्ति सर्वे पदार्था लोका वा यस्मिन् तथाभूतस्य सदनस्य ब्रह्माण्डस्य धारको हि प्रकाशते सः-परमात्मा (गार्ष्टेयः-वृषभः-गोभिः सम् आनट्) सकृत्प्रसूताया उत्पन्नो वृषभो यथा गोभिः-सह संव्याप्नोति अधिकरोति तद्वत् परमात्मा सर्वान् पदार्थान् संव्याप्नोति अथवा ‘गृज शब्दे’ या गर्जति खल्वाकाशे सा विद्युद्गर्जना तत्सम्बन्धी तत्प्रवर्तयिता गार्ष्टेयो मेघ इव सुखवर्षक-परमात्मा वेदवाग्भिः स्तोतॄन् सं व्याप्नोति (तविषेण रवेण-उत् अतिष्ठत्) महता शब्देन “तविषः महन्नाम” [निघ० ३।३] वेदरूपघोषणोपरि तिष्ठति (महान्ति चित् रजांसि-विव्याच) महान्ति लोकलोकान्तराणि व्याप्नोति ॥२॥