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इन्द्र॒ दृह्य॑ मघव॒न्त्वाव॒दिद्भु॒ज इ॒ह स्तु॒तः सु॑त॒पा बो॑धि नो वृ॒धे । दे॒वेभि॑र्नः सवि॒ता प्राव॑तु श्रु॒तमा स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥

English Transliteration

indra dṛhya maghavan tvāvad id bhuja iha stutaḥ sutapā bodhi no vṛdhe | devebhir naḥ savitā prāvatu śrutam ā sarvatātim aditiṁ vṛṇīmahe ||

Pad Path

इन्द्र॑ । दृह्य॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । त्वाऽव॑त् । इत् । भु॒जे । इ॒ह । स्तु॒तः । सु॒त॒ऽपाः । बो॒धि॒ । नः॒ । वृ॒धे । दे॒वेभिः॑ । नः॒ । स॒वि॒ता । प्र । अ॒व॒तु॒ । श्रु॒तम् । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥ १०.१००.१

Rigveda » Mandal:10» Sukta:100» Mantra:1 | Ashtak:8» Adhyay:5» Varga:16» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:9» Mantra:1


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BRAHMAMUNI

इस सूक्त में परमात्मा स्तुतिकर्त्ताओं के आयु, सम्पत्ति, श्रेष्ठ गुणों को बढ़ाता है, पाप दूर करता है, मन को प्रसन्न करता है, इत्यादि विषय हैं।

Word-Meaning: - (मघवन्-इन्द्र) हे सब प्रकार के धनवाले परमात्मन् ! (त्वावत्-दृह्य-इत्) तेरे सदृश चेतन अपने उपासक आत्मा को बढ़ा, उन्नत कर (भुजे) सुखभोग के लिए (इह स्तुतः) इस जीवन में उपासित हुआ (सुतपाः) उपासनारस का पानकर्त्ता (नः-वृधे) हमारी वृद्धि के लिए (सविता) तू उत्पादक परमात्मा (देवेभिः) इन्द्रियों द्वारा (नः श्रुतम्) हमारे सुने ज्ञान को (प्र अवतु) सुरक्षित रख, उसकी सुरक्षा कर (सर्वतातिम्-अदितिम्-आ वृणीमहे) सब जगत् के विस्तारक अनश्वर तुझ देव को भलीभाँति वरें-स्वीकार करें-मानें ॥१॥
Connotation: - परमात्मा समस्त धन ऐश्वर्यों का स्वामी है, वह उपासक आत्मा को सुखभोग के लिए  बढ़ाता है और श्रवण किये ज्ञान की रक्षा करता है, उस जगद्विस्तारक अनश्वर परमात्मा को अपनाना मानना चाहिये ॥१॥
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BRAHMAMUNI

अत्र सूक्ते परमात्मा स्तोतॄणामायुः सम्पत्तिश्रेष्ठगुणान्वर्धयति पापं दूरी करोति मनः प्रसादयतीत्यादि विषयाः सन्ति।

Word-Meaning: - (मघवन्-इन्द्र) हे सर्वविषयक धनवन् परमात्मन् ! (त्वावत् दृह्य-इत्) त्वत्सदृशं स्वोपासकात्मानं वर्धय “दृह वृद्धौ” [भ्वादि०] व्यत्ययेन श्यन् विकरणः (भुजे) सुखभोगाय (इह स्तुतः) अस्मिन् जीवने त्वं स्तुतः सन् (सुतपाः) उपासनारसपानकर्त्ता (नः-वृधे) अस्माकं वृद्धये (सविता-देवेभिः-नः श्रुतं प्र अवतु) त्वमुत्पादकः परमात्मा-इन्द्रियैः-श्रुतं ज्ञानं प्राव रक्ष ‘व्यत्ययेन प्रथमः पुरुषः’ (सर्वतातिम्-अदितिम्-आ वृणीमहे) सर्वजगद्विस्तारकमनश्वरदेवं त्वां समन्ताद् वृणुयाम ॥१॥