Word-Meaning: - हे प्रिये पत्नि ! (पुरा) पूर्व दाम्पत्यकाल में (ऋता वदन्तः) वेदमन्त्रों को उच्चारण करते हुए अर्थात् प्रजोत्पत्ति-निमित्त ईश्वरीय नियमों को स्वीकारते हुए (यत्) जो गार्हस्थ्य अर्थात् सन्तानोत्पादकरूप व्रत (चकृम) हम ने किया था, उसको (नूनम्) आज (अनृतम्) वेदविरुद्ध निषेधवचन (न) नहीं (रपेम) कह सकते, अर्थात् हे प्राणप्रिये ! मैंने यह निश्चय किया है कि हमने जो दाम्पत्य वेदमन्त्रों-ईश्वरीय नियमों से गर्भाधान के लिये प्रतिज्ञाबद्ध किया था, सो उसको उल्लङ्घन से इस समय नकाररूप अर्थात् निषेधरूप अशास्त्रवचन कथंचित् नहीं बोल सकते, किन्तु गर्भाधान के लिये उद्यत हैं। प्रत्युत (गन्धर्वः) गर्भाधान सम्बन्ध का इच्छुक मैं तेरा पति (अप्सु) अन्तरिक्ष में (योषा च) और तू गर्भाधान को चाहनेवाली मेरी पत्नी भी (अप्या) अन्तरिक्ष में है, एवं हम दोनों ही जलप्रवाह की नाई निरन्तर गति कर रहे हैं तथा जिस पृथिवी के नीचे ऊपर की ओर हम दोनों की (नाभिः) नाभि है, क्योंकि अरारूप धुरी की नाई दिन और रात हम दोनों पति-पत्नी इस पृथिवी के चारों ओर चक्र काटते हैं, (तत्) बस वह यह (नौ) हम दोनों के मध्य में (परमम्) अत्यन्त (जामि) असमानजातीय-व्यवधायक अर्थात् गर्भाधानक्रिया में रुकावट डालनेवाला पदार्थ है, क्योंकि दो व्यक्तियों के संयोगाभाव का कारण व्यवधायक मध्य में बैठा हुआ असमानजातीय ही होता है, जैसे ‘नुद’ में “न्द्” इन दोनों हलों के संयोग का व्यवधायक-असमानजातीय ‘उ’ अच् है। हे प्रिये। मैं गर्भाधान संयोग के लिये उद्यत हूँ, किन्तु यह पृथिवी दोनों के मध्य में स्थित हुई गर्भाधान संयोग की अत्यन्त बाधक है। जिसके चारों ओर हम दोनों दैविक नियम से घूमते हैं। हा ! शोक, क्या करें, हम दोनों ही यहाँ विवश हैं ॥४॥
Connotation: - विवाह वेदमन्त्रों द्वारा प्रतिज्ञापूर्वक हो, प्रतिज्ञाओं का उल्लङ्घन कभी न हो। कारणवश दूर-दूर पर भी स्नेहसमाचार बना रहे। दिन-रात पृथिवी के साथ समकक्ष में होते हैं, पर उनके ओर-छोर मिले रहते हैं, यही प्रातः-सायं कहलाते हैं ॥४॥