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किं भ्राता॑स॒द्यद॑ना॒थं भवा॑ति॒ किमु॒ स्वसा॒ यन्निॠ॑तिर्नि॒गच्छा॑त् । काम॑मूता ब॒ह्वे॒३॒॑तद्र॑पामि त॒न्वा॑ मे त॒न्वं१॒॑ सं पि॑पृग्धि ॥

English Transliteration

kim bhrātāsad yad anātham bhavāti kim u svasā yan nirṛtir nigacchāt | kāmamūtā bahv etad rapāmi tanvā me tanvaṁ sam pipṛgdhi ||

Pad Path

किम् । भ्राता॑ । अ॒स॒त् । यत् । अ॒ना॒थम् । भवा॑ति । किम् । ऊँ॒ इति॑ । स्वसा॑ । यत् । निःऽऋ॑तिः । नि॒ऽगच्छा॑त् । काम॑ऽमूता । ब॒हु । ए॒तत् । र॒पा॒मि॒ । त॒न्वा॑ । मे॒ । त॒न्व॑म् । सम् । पि॒पृ॒ग्धि॒ ॥ १०.१०.११

Rigveda » Mandal:10» Sukta:10» Mantra:11 | Ashtak:7» Adhyay:6» Varga:8» Mantra:1 | Mandal:10» Anuvak:1» Mantra:11


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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - हे दिवस ! दैवकृत आपत्ति से शरीर संयोगसंबन्ध में (किम्) क्या अब आप (भ्राता) भाई (असत्) हो गये हो ? (यत्) जिससे इस प्रकार (अनाथम्) आपकी ओर से अनाथता-अपतिपन (भवाति) हो जावे, और जो मैं तेरी पत्नी हूँ (किमु) क्या इस समय (स्वसा-असत्) बहिन हो गयी (यत्) जिस से (निर्ऋतिः) बिना संभोग के (निगच्छात्) मेरी काया से अपनी काया को (काममूता) सम्पृक्त कर अर्थात् मिलादे ॥११॥
Connotation: - सन्तानोपत्ति या गर्भाधान की स्थापना में असमर्थ स्त्री-पुरुष भाई बहन की भाँति रहें ॥११॥ समीक्षा (सायणभाष्य)−“यस्मिन् भ्रातरि सति स्वसादिकमनाथं नाथरहितं भवाति-भवति स भ्राता किमसत् किं भवति न भवतीत्यर्थः किं च यस्यां भगिन्यां सत्यां भ्रातरं निर्ऋतिर्दुःखं निगच्छात् नियमेन गच्छति प्राप्नोति सा किमु किंवा भवति।” इस स्थान पर सायण की खींचतान की कोई सीमा नहीं रह गई। “अनाथम्” क्रियाविशेषण को ‘स्वसा’ का विशेषण करता है परन्तु ‘अनाथम्’ शब्द नपुंसकलिङ्ग है और ‘स्वसा’ शब्द स्त्रीलिङ्ग है, इसलिए ‘आदिकम्’ शब्द अधिक जोड़कर ‘स्वसादिकम्’ लिखता है। यहाँ पर क्या भ्राता के साथ स्वसा से भिन्न-व्यक्ति का भी सम्बन्ध है, जो ‘आदिकम्’ पद अधिक जोड़ा है ? यदि ‘आदिकम्’ से ‘दुहिता’ ‘माता’ भी सम्बन्ध रखते हैं, तब तो भ्राता नहीं होगा, अपितु दुहिता के साथ पिता और माता के साथ पुत्र का सम्बन्ध होगा, अतः यह कल्पना निर्बल है। तथा ‘वह ऐसा भ्राता न होने के बराबर ही है, जिसके होते हुए बहिन अनाथ रहे’ यह हेतु भी निरथर्क है, क्योंकि वह यम उस यमी को अविवाहित रहने का उपदेश तो दे ही नहीं रहा था। अपितु पूर्व मन्त्र में आज्ञा दे चुका था “अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्” फिर कैसे इस मिथ्या हेतु की वेद में स्थापना है ? इसी प्रकार ‘वह बहिन भी कुछ नहीं, जिसके होते हुए भाई को दुःख प्राप्त हो’, यह हेतु भी अयुक्त है। उस यम को क्या दुःख था ? क्या उसका कोई विवाह नहीं करता था ? अथवा वह महादरिद्र था, जिससे उसको दूसरी स्त्री न मिल सकती हो। इन हेतुओं को सामान्य बुद्धि के व्यक्ति भी स्वीकार नहीं कर सकते। इस प्रकार अपनी कल्पनासिद्धि के लिए सायण को अनावश्यक खींचतान करनी पड़ी ॥११॥
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BRAHMAMUNI

Word-Meaning: - हे दिवस ! ‘दैवकृतापत्त्या’ शरीरसंयोग-सम्बन्धे भवान् (किं भ्राता-असत्) अधुना किं भ्राता-अभवत् ? “अस् भुवि” [अदादिः] लङि रूपम् “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।४।७३] इत्यनेन शपो लुग्न भवति तथाडागमोऽपि न “बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि” [अष्टा० ६।४।७५] (यत्-अनाथम्) अविद्यमानो नाथो यस्मिन् तदनाथं नाथराहित्यमपतित्वमिति यावत्-क्रियाविशेषणञ्चैतत् “नञ्सुभ्याम्” [अष्टा० ६।२।१७२] अनेन चान्तोदात्तत्वम्। (भवाति) भवेत् “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] (किम् उ) किञ्चाहं ते पत्नी (स्वसा-असत्) अभवत्, असदित्यनेनान्वयः, (यत्) यतः (निर्ऋतिः) निः-रतिः-रतिमन्तरेण सम्भोगेन विना “निर्ऋतिर्निरमणात्” [निरु० २।७] अत्र   रम् धातोः क्तिनि “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० ६।१।३४] अनेन सम्प्रसारणं (निगच्छात्) पुरुषान्तरं गच्छेत् “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] (काममूता) कामेन बद्धा कामग्रस्ता-कामवशा “मूङ्” [भ्वादिः] ‘मूञ्’ क्र्यादिरुभावपि बन्धनेऽर्थे, (बहु-एतत्-रपामि) बहुप्रकारेण हावभावाभ्यामेतद्रपामि-निवेदयामि यत् (मे तन्वा तन्वम्) मम शरीरेण स्वशरीरं (सं पिपृग्धि) सम्पृक्तं कुरु-संयोजय ॥११॥