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जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑मरातीय॒तो नि द॑हाति॒ वेद॑:। स न॑: पर्ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिन्धुं॑ दुरि॒तात्य॒ग्निः ॥

English Transliteration

jātavedase sunavāma somam arātīyato ni dahāti vedaḥ | sa naḥ parṣad ati durgāṇi viśvā nāveva sindhuṁ duritāty agniḥ ||

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Pad Path

ज॒तऽवे॑दसे। सु॒न॒वा॒म॒। सोम॑म्। अ॒रा॒ति॒ऽय॒तः। नि। द॒हा॒ति॒। वेदः॑। सः। नः॒। प॒र्ष॒त्। अति॑। दुः॒ऽगानि॑। विश्वा॑। ना॒वाऽइ॑व। सिन्धु॑म्। दुः॒ऽइ॒ता। अति॑। अ॒ग्निः ॥ १.९९.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:99» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:7» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब एक ऋचावाले निन्नानवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें ईश्वर कैसा है, यह वर्णन किया है ।

Word-Meaning: - जिस (जातवेदसे) उत्पन्न हुए चराचर जगत् को जानने और प्राप्त होनेवाले वा उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिये हम लोग (सोमम्) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का (सुनवाम) निचोड़ करते हैं अर्थात् यथायोग्य सबको वर्त्तते हैं और जो (अरातीयतः) अधर्मियों के समान वर्त्ताव रखनेवाले दुष्ट जन के (वेदः) धन को (नि, दहाति) निरन्तर नष्ट करता है (सः) वह (अग्निः) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह (नावेव) नौका से (सिन्धुम्) नदी वा समुद्र के पार पहुँचाता है वैसे (नः) हम लोगों को (अति) अत्यन्त (दुर्गाणि) दुर्गति और (अतिदुरिता) अतीव दुःख देनेवाले (विश्वा) समस्त पापाचरणों के (पर्षत्) पार करता है, वही इस जगत् में खोजने के योग्य है ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मल्लाह कठिन बड़े समुद्रों में अत्यन्त विस्तारवाली नावों से मनुष्यादिकों को सुख से पार पहुँचाते हैं, वैसे ही अच्छे प्रकार उपासना किया हुआ जगदीश्वर दुःखरूपी बड़े भारी समुद्र में स्थित मनुष्यों को विज्ञानादि दानों से उसके पार पहुँचाता है, इसलिये उसकी उपासना करनेहारा ही मनुष्य शत्रुओं को हरा के उत्तम वीरता के आनन्द को प्राप्त हो सकता है, और का क्या सामर्थ्य है ॥ १ ॥इस सूक्त में ईश्वर के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह ९९ निन्नानवाँ सूक्त और ७ सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

यस्मै जातवेदसे जगदीश्वराय वयं सोमं सुनवाम यश्चारातीयतो वेदो निदहाति सोऽग्निर्नावेव सिन्धुं नोऽतिदुर्गाण्यतिदुरिता विश्वा पर्षत्सोऽत्रान्वेषणीयः ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (जातवेदसे) यो जातं सर्वं वेत्ति विन्दति जातेषु विद्यमानोऽस्ति तस्मै (सुनवाम) पूजयाम (सोमम्) सकलैश्वर्य्यमुत्पन्नं संसारस्थं पदार्थसमूहम् (अरातीयतः) शत्रोरिवाचरणशीलस्य (नि) निश्चयार्थे (दहाति) दहति (वेदः) धनम् (सः) (नः) अस्मान् (पर्षत्) संतारयति (अति) (दुर्गाणि) दुःखेन गन्तुं योग्यानि स्थानानि (विश्वा) सर्वाणि (नावेव) यथा नौका तथा (सिन्धुम्) समुद्रम् (दुरिता) दुःखेन नेतुं योग्यानि (अति) (अग्निः) विज्ञानस्वरूपो जगदीश्वरः। इमं मन्त्रं यास्काऽऽचार्य्य एवं समाचष्टे। जातवेदस इति जातमिदं सर्वं सचराचरं स्थित्युत्पत्तिप्रलयन्यायेनास्थाय सुनवाम सोममिति प्रसवेनाभिषवाय सोमं राजानममृतमराती यतो यज्ञार्थमिति स्मो निश्चये निदहाति दहति भस्मीकरोति सोमो दददित्यर्थः। स नः पर्षदति दुर्गाणि दुर्गमनानि स्थानानि नावेव सिन्धुं यथा कश्चित्कर्णधारो नावेव सिन्धोः स्यन्दनान्नदीं जलदुर्गां महाकूलां तारयति दुरितात्यग्निरिति दुरितानि तारयति । निरु० १४। ३३। ॥ १ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा कर्णधाराः कठिनमहासमुद्रेषु महानौकाभिर्मनुष्यादीन् सुखेन पारं नयन्ति तथैव सूपासितो जगदीश्वरो दुःखरूपे महासमुद्रे स्थितान्मनुष्यान् विज्ञानादिदानैस्तत्पारं नयति परमेश्वरोपासक एव मनुष्यः शत्रुपराभवं कृत्वा परमानन्दं प्राप्तुं शक्नोति किं सामर्थ्यमन्यस्य ॥ १ ॥।अत्रेश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इत्येकोनशततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात ईश्वराच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे नाविक मोठ्या गहन समुद्रात विस्तीर्ण नावांद्वारे माणसे इत्यादींना सुखाने पलीकडे पोहोचवितात, तसा चांगल्या प्रकारे उपासना केलेला जगदीश्वर दुःखरूपी गहन अशा मोठ्या समुद्रात स्थित माणसांना विज्ञान इत्यादी दानांनी त्याच्या पलीकडे पोहोचवितो. त्यासाठी त्याची उपासना करणाराच शत्रूंचा पराभव करून उत्तम वीरता दाखवून आनंद प्राप्त करू शकतो. इतर कुणाचे असे सामर्थ्य असू शकते काय?