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वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ सुम॒तौ स्या॑म॒ राजा॒ हि कं॒ भुव॑नानामभि॒श्रीः। इ॒तो जा॒तो विश्व॑मि॒दं वि च॑ष्टे वैश्वान॒रो य॑तते॒ सूर्ये॑ण ॥

English Transliteration

vaiśvānarasya sumatau syāma rājā hi kam bhuvanānām abhiśrīḥ | ito jāto viśvam idaṁ vi caṣṭe vaiśvānaro yatate sūryeṇa ||

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Pad Path

वै॒श्वा॒न॒रस्य॑। सु॒ऽम॒तौ। स्या॒म॒। राजा॑। हि। क॒म्। भुव॑नानाम्। अ॒भि॒ऽश्रीः। इ॒तः। जा॒तः। विश्व॑म्। इ॒दम्। वि। च॒ष्टे॒। वै॒श्वा॒न॒रः। य॒त॒ते॒। सूर्ये॑ण ॥ १.९८.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:98» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:6» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब अट्ठानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि कैसे हैं, यह विषय कहा है ।

Word-Meaning: - जो (वैश्वानरः) समस्त जीवों को यथायोग्य व्यवहारों में वर्त्तानेवाला ईश्वर वा जाठराग्नि (इतः) कारण से (जातः) प्रसिद्ध हुए (इदम्) इस प्रत्यक्ष (कम्) सुख को (विश्वम्) वा समस्त जगत् को (विचष्टे) विशेष भाव से दिखलाता है और जो (सूर्येण) प्राण वा सूर्यलोक के साथ (यतते) यत्न करनेवाला होता है वा जो (भुवनानाम्) लोकों का (अभिश्रीः) सब प्रकार से धन है तथा जिस भौतिक अग्नि से सब प्रकार का धन होता है वा (राजा) जो न्यायाधीश सबका अधिपति है तथा प्रकाशमान बिजुलीरूप अग्नि है, उस (वैश्वानरस्य) समस्त पदार्थ को देनेवाले ईश्वर का भौतिक अग्नि की (सुमतौ) श्रेष्ठ मति में अर्थात् जो कि अत्यन्त उत्तम अनुपम ईश्वर की प्रसिद्ध की हुई मति वा भौतिक अग्नि से अतीव प्रसिद्ध हुई मति उसमें (हि) ही (वयम्) हम लोग (स्याम) स्थिर हों ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो सबसे बड़ा व्याप्त होकर सब जगत् को प्रकाशित करता है, उसी के अति उत्तम गुणों से प्रसिद्ध उसकी आज्ञा में नित्य प्रवृत्त होओ तथा जो सूर्य्य आदि को प्रकाश करनेवाला अग्नि है, उसकी विद्या की सिद्धि में भी प्रवृत्त होओ, इसके विना किसी मनुष्य को पूर्ण धन नहीं हो सकते ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथाऽग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते ।

Anvay:

यो वैश्वानर इतो जात इदं कं विश्वं जगद्विचष्टे यः सूर्येण सह यतते यो भुवनानामभिश्री राजास्ति तस्य वैश्वानरस्य सुमतौ हि वयं स्याम ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (वैश्वानरस्य) विश्वेषु नरेषु जीवेषु भवस्य (सुमतौ) शोभना मतिः सुमतिः तस्याम् (स्याम) भवेम (राजा) न्यायाधीशः सर्वाऽधिपतिरीश्वरः। प्रकाशमानो विद्युदग्निर्वा (हि) खलु (कम्) सुखम् (भुवनानाम्) लोकानाम् (अभिश्रीः) अभितः श्रियो यस्माद्वा (इतः) कारणात् (जातः) प्रसिद्धः (विश्वम्) सकलं जगत् (इदम्) प्रत्यक्षम् (वि) (चष्टे) दर्शयति (वैश्वानरः) सर्वेषां जीवानां नेता (यतते) संयतो भवति (सूर्येण) प्राणेन वा मार्त्तण्डेन सह। अत्राहुर्नैरुक्ताः−इतो जातः सर्वमिदमभिविपश्यति, वैश्वानरः संयतते सूर्येण, राजा यः सर्वेषां भूतानामभिश्रयणीयस्तस्य वयं वैश्वानरस्य कल्याण्यां मतौ स्यामेति। तत्को वैश्वानरो मध्यम इत्याचार्या वर्षकर्मणा ह्येनं स्तौति । निरु० ७। २२। ॥ १ ॥
Connotation: - (अत्र श्लेषालङ्कारः। ) हे मनुष्या योऽभिव्याप्य सर्वं जगत्प्रकाशयति तस्यैव सुगुणैः प्रसिद्धायां तदाज्ञायां नित्यं प्रवर्त्तध्वम्। यस्तथा सूर्य्यादिप्रकाशकोऽग्निरस्ति तस्य विद्यासिद्धौ च नैवं विना कस्यापि मनुष्यस्य पूर्णाः श्रियो भवितुं शक्यन्ते ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांशी संबंध ठेवणाऱ्या कर्माच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. हे माणसांनो! जो सर्वात मोठा असून सर्व जगाला व्याप्त करून प्रकाशित करतो. त्याच्याच अतिउत्तम गुणांनी प्रसिद्ध होऊन त्याच्याच आज्ञेत प्रवृत्त व्हा व जो सूर्य इत्यादीला प्रकाशित करणारा अग्नी आहे ती विद्या सिद्ध करण्यास प्रवृत्त व्हा. त्याशिवाय कोणत्याही माणसाला पूर्ण धन प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ १ ॥