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वसो॒रिन्द्रं॒ वसु॑पतिं गी॒र्भिर्गृ॒णन्त॑ ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॒ गन्ता॑रमू॒तये॑॥

English Transliteration

vasor indraṁ vasupatiṁ gīrbhir gṛṇanta ṛgmiyam | homa gantāram ūtaye ||

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Pad Path

वसोः॑। इन्द्र॑म्। वसु॑ऽपतिम्। गीः॒ऽभिः। गृ॒णन्तः॑। ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॑। गन्ता॑रम्। ऊ॒तये॑॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:9» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:18» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:3» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी यह इन्द्र कैसा है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

Word-Meaning: - (गीर्भिः) वेदवाणी से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए हम लोग (वसुपतिम्) अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्यलोक, द्यौ अर्थात् प्रकाशमान लोक, चन्द्रलोक और नक्षत्र अर्थात् जितने तारे दीखते हैं, इन सब का नाम वसु है, क्योंकि ये ही निवास के स्थान हैं, इनका पति स्वामी और रक्षक (ऋग्मियम्) वेदमन्त्रों के प्रकाश करनेहारे (गन्तारम्) सब के अन्तर्यामी अर्थात् अपनी व्याप्ति से सब जगह प्राप्त होने तथा (इन्द्रम्) सब के धारण करनेवाले परमेश्वर को (वसोः) संसार में सुख के साथ वास कराने का हेतु जो विद्या आदि धन है, उसकी (ऊतये) प्राप्ति और रक्षा के लिये (होम) प्रार्थना करते हैं॥९॥
Connotation: - सब मनुष्यों को उचित है कि जो ईश्वरपन का निमित्त, संसार का स्वामी, सर्वत्र व्यापक इन्द्र परमेश्वर है, उसकी प्रार्थना और ईश्वर के न्याय आदि गुणों की प्रशंसा पुरुषार्थ के साथ सब प्रकार से अतिश्रेष्ठ विद्या राज्यलक्ष्मी आदि पदार्थों को प्राप्त होकर उनकी उन्नति और रक्षा सदा करें॥९॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथायमिन्द्रः कीदृश इत्युपदिश्यते।

Anvay:

गीर्भिर्गृणन्तो वयं वसुपतिमृग्मियं गन्तारमिन्द्रं वसोरूतये होम॥९॥

Word-Meaning: - (वसोः) सुखवासहेतोर्विद्यादिधनस्य (इन्द्रम्) धारकम् (वसुपतिम्) वसूनामग्निपृथिव्यादीनां पतिं पालकं स्वामिनम्। कतमे वसव इति। अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदꣳसर्वं वसु हितमेते हीदꣳसर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳसर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति। (श०ब्रा०१४.५.७.४) (गीर्भिः) वेदविद्यया संस्कृताभिर्वाग्भिः। गीरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (गृणन्तः) स्तुवन्तः। (ऋग्मियम्) ऋचां वेदमन्त्राणां निर्मातारम्। ऋगुपपदान्मीञ्धातोः क्विप्। अमीयङादेशश्चेति। (होम) आह्वयामः। ह्वेञ् इत्यस्माल्लडुत्तमबहुवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। छन्दस्युभयथा इत्युभयसंज्ञात्वे गुणसम्प्रसारणे भवतः। छान्दसो वर्णलोपो वेति सकारलोपश्च। (गन्तारम्) ज्ञातारं सर्वत्र व्याप्त्या प्रापकम् (ऊतये) रक्षणाय स्वामित्वप्राप्तये क्रियोपयोगाय वा॥९॥
Connotation: - सर्वैर्मनुष्यैः सर्वजगत्स्वामिनो वेदप्रकाशकस्य सर्वत्र व्यापकस्येन्द्रस्य परमेश्वरस्यैवेश्वरत्वेन स्तुतिः कार्य्या। तथेश्वरस्य न्यायकरणत्वादिगुणानां स्पर्धा पुरुषार्थेन सर्वथोत्कृष्टान् विद्याराज्यश्रियादिपदार्थान् प्राप्य रक्षोन्नती च सदैव कार्य्ये इति॥९॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जो ऐश्वर्याचे निमित्त, जगाचा स्वामी, सर्वव्यापक इन्द्र परमेश्वर आहे त्याची सर्व माणसांनी प्रार्थना करावी व ईश्वराच्या न्याय इत्यादी गुणांची प्रशंसा करावी. पुरुषार्थाने अतिश्रेष्ठ विद्या, राज्यलक्ष्मी इत्यादी पदार्थांना प्राप्त करून उन्नत व्हावे व सदैव त्यांचे रक्षण करावे. ॥ ९ ॥