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भ॒द्रं कर्णे॑भिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः। स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टु॒वांस॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेम दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑ ॥

English Transliteration

bhadraṁ karṇebhiḥ śṛṇuyāma devā bhadram paśyemākṣabhir yajatrāḥ | sthirair aṅgais tuṣṭuvāṁsas tanūbhir vy aśema devahitaṁ yad āyuḥ ||

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Pad Path

भ॒द्रम्। कर्णे॑भिः। शृ॒णु॒या॒म॒। दे॒वाः॒। भ॒द्रम्। प॒श्ये॒म॒। अ॒क्षऽभिः॑। य॒ज॒त्राः॒। स्थि॒रैः। अङ्गैः॑। तु॒स्तु॒ऽवांसः॑। त॒नूभिः॑। वि। अ॒शे॒म॒। दे॒वऽहि॑तम्। यत्। आयुः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:89» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:16» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

मनुष्यों को ऐसा करके क्या-क्या करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (यजत्राः) संगम करनेवाले (देवाः) विद्वानो ! आप लोगों के संग से (तनूभिः) बढ़े हुए बलोंवाले शरीर (स्थिरैः) दृढ़ (अङ्गैः) पुष्ट शिर आदि अङ्ग वा ब्रह्मचर्यादि नियमों से (तुष्टुवांसः) पदार्थों के गुणों की स्तुति करते हुए हम लोग (कर्णेभिः) कानों से (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक पढ़ना-पढ़ाना है, उसको (शृणुयाम) सुनें-सुनावें (अक्षभिः) बाहरी-भीतरली आँखों से जो (भद्रम्) शरीर और आत्मा का सुख है, उसको (पश्येम) देखें, इस प्रकार उक्त शरीर और अङ्गों से जो (देवहितम्) विद्वानों की हित करनेवाली (आयुः) अवस्था है, उसको (वि) (अशेम) वार-वार प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
Connotation: - विद्वान्, आप्त और सज्जनों के संग के विना कोई सत्यविद्या का वचन सत्य-दर्शन और सत्य व्यवहारमय अवस्था को नहीं पा सकता और न इसके विना किसी का शरीर और आत्मा दृढ़ हो सकता है, इससे सब मनुष्यों को यह उक्त व्यवहार वर्त्तना योग्य है ॥ ८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

मनुष्यैरेवं कृत्वा किं किमाचरणीयमित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे यजत्रा देवा ! भवत्सङ्गेन तनूभिः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसः सन्तो वयं कर्णेभिर्यद्भद्रं तच्छृणुयामाक्षभिर्यद्भद्रं तत्पश्येम एवं तनूभिः स्थिरैरङ्गैर्यद्देवहितमायुस्तदशेम ॥ ८ ॥

Word-Meaning: - (भद्रम्) कल्याणकारकमध्ययनाध्यापनम् (कर्णेभिः) श्रोत्रैः। अत्र ऐसभावः। (शृणुयाम) (देवाः) विद्वांसः (भद्रम्) शरीरात्मसुखम् (पश्येम) (अक्षभिः) बाह्याभ्यन्तरैर्नेत्रैः। छन्दस्यपि दृश्यते। (अष्टा०७.१.७६) अनेन सूत्रेणाक्षिशब्दस्य भिस्यनङादेशः। (यजत्रा) यजन्ति सङ्गच्छन्ते ये ते। अमिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। (उणा०३.१०३) अनेनौणादिकसूत्रेण यजधातोरत्रन्। (स्थिरैः) निश्चलैः (अङ्गैः) शिर आदिभिर्ब्रह्मचर्यादिभिर्वा (तुष्टुवांसः) पदार्थगुणान् स्तुवन्तः (तनूभिः) विस्तृतबलैः शरीरैः (वि) विविधार्थे (अशेम) प्राप्नुयाम। अत्राऽशूङ् धातो लिङ्याशिष्यङ् (अष्टा०३.१.८६) इत्यङ्। सार्वधातुकसंज्ञया लिङः सलोप इति सकारलोपः। आर्द्धधातुकसंज्ञया शपोऽभावः। (देवहितम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (यत्) (आयुः) जीवनम् ॥ ८ ॥
Connotation: - नहि विदुषां सत्पुरुषाणामाप्तानां सङ्गेन विना कश्चित्ससत्यविद्यावचः सत्यं दर्शनं सत्यनिष्ठामायुश्च प्राप्तुं शक्नोति, न ह्येतैर्विना कस्यचिच्छरीमात्मा च दृढो भवितुं शक्यस्तस्मादेतत्सर्वैर्मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम् ॥ ८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - विद्वान, आप्त व सज्जनांच्या संगतिशिवाय कुणीही सत्यविद्येची वाणी, सत्यदर्शन व व्यवहार प्राप्त करू शकत नाही व त्यांच्याशिवाय कुणाचे शरीर व आत्मा दृढ होऊ शकत नाही, त्यासाठी सर्व माणसांनी वरील व्यवहाराप्रमाणे वागणे योग्य आहे. ॥ ८ ॥