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अहा॑नि॒ गृध्राः॒ पर्या व॒ आगु॑रि॒मां धियं॑ वार्का॒र्यां च॑ दे॒वीम्। ब्रह्म॑ कृ॒ण्वन्तो॒ गोत॑मासो अ॒र्कैरू॒र्ध्वं नु॑नुद्र उत्स॒धिं पिब॑ध्यै ॥

English Transliteration

ahāni gṛdhrāḥ pary ā va āgur imāṁ dhiyaṁ vārkāryāṁ ca devīm | brahma kṛṇvanto gotamāso arkair ūrdhvaṁ nunudra utsadhim pibadhyai ||

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Pad Path

अहा॑नि। गृध्राः॑। परि॑। आ। वः॒। आ। अ॒गुः॒। इ॒माम्। धिय॑म्। वा॒र्का॒र्याम्। च॒। दे॒वीम्। ब्रह्म॑। कृ॒ण्वन्तः॑। गोत॑मासः। अ॒र्कैः। ऊ॒र्ध्वम्। नु॒नु॒द्रे॒। उ॒त्स॒ऽधिम्। पिब॑ध्यै ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:88» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:14» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जो (गृध्राः) सब प्रकार से अच्छी काङ्क्षा करनेवाले (गोतमासः) अत्यन्त ज्ञानवान् सज्जन (ब्रह्म) धन, अन्न और वेद का पठन (कृण्वन्तः) करते हुए (अर्कैः) वेदमन्त्रों से (अहानि) दिनोंदिन (ऊर्ध्वम्) उत्कर्षता से (पिबध्यै) पीने के लिये (उत्सधिम्) जिस भूमि में कुएं नियत किये जावें, उसके समान (आ+नुनुद्रे) सर्वथा उत्कर्ष होने के लिये (वः) तुम्हारे सामने होकर प्रेरणा करते हैं वे (वार्कार्य्याम्) जल के तुल्य निर्मल होने के योग्य (देवीम्) प्रकाश को प्राप्त होती हुई (इमाम्) इस (धियम्) धारणवती बुद्धि (च) और धन को (परि+आ+अगुः) सब कहीं से अच्छे प्रकार प्राप्त हो के अन्य को प्राप्त कराते हैं, वे सदा सेवा के योग्य हैं ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे ज्ञान गौरव चाहनेवालो ! जैसे मनुष्य पिआस के खोने आदि प्रयोजनों के लिये परिश्रम के साथ कुंआ, बावरी, तालाब आदि खुदा कर अपने-अपने कामों को सिद्ध करते हैं, वैसे आप लोग अत्यन्त पुरुषार्थ और विद्धानों के संग से विद्या के अभ्यास को जैसे चाहिये वैसा करके समस्त विद्या से प्रकाशित उत्तम बुद्धि को पाकर उसके अनुकूल क्रिया को सिद्ध करो ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! ये गृध्रा गोतमासो ब्रह्म कृण्वन्तः सन्तोऽर्कैरहान्यूर्ध्वं पिबध्या उत्सधिमिवानुनुद्रे ये वो युष्मभ्यं वार्कार्यामिमां देवीं धियं धनं च पर्यागुस्ते सदा सेवनीयाः ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (अहानि) दिनानि (गृध्राः) अभिकाङ्क्षन्तः (परि) सर्वतः (आ) आभिमुख्ये (वः) युष्मभ्यम् (आ) समन्तात् (अगुः) प्राप्तवन्तः (इमाम्) (धियम्) धारणवतीं प्रज्ञाम् (वार्कार्य्याम्) जलमिव निर्मलां सम्पत्तव्याम् (च) अनुक्तसमुच्चये (देवीम्) देदीप्यमानाम् (ब्रह्म) धनमन्नं वेदाध्यापनम् (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः (गोतमासः) अतिशयेन ज्ञानवन्तः (अर्कैः) वेदमन्त्रैः (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टभागम्। (नुनुद्रे) प्रेरते (उत्सधिम्) उत्साः कूपा धीयन्ते यस्मिन् भूमिभागे तम् (पिबध्यै) पातुम् ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे जिज्ञासवो मनुष्या ! यथा पिपासानिवारणादिप्रयोजनायातिश्रमेण जलाशयं निर्माय स्वकार्याणि साध्नुवन्ति, तथैव भवन्तोऽतिपुरुषार्थेन विदुषां सङ्गेन विद्याभ्यासं यथावत् कृत्वा सर्वविद्याप्रकाशां प्रज्ञां प्राप्य तदनुकूलां क्रियां साध्नुवन्तु ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे जिज्ञासू माणसांनो! जशी माणसे तृषा निवारणासाठी परिश्रमपूर्वक जलाशय निर्माण करून आपले कार्य सिद्ध करतात तसे तुम्ही अत्यंत पुरुषार्थाने व विद्वानांच्या संगतीने यथायोग्य विद्याभ्यास करून संपूर्ण विद्येने बुद्धी प्राप्त करून त्यानुसार क्रिया सिद्ध करा. ॥ ४ ॥