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त्वष्टा॒ यद्वज्रं॒ सुकृ॑तं हिर॒ण्ययं॑ स॒हस्र॑भृष्टिं॒ स्वपा॒ अव॑र्तयत्। ध॒त्त इन्द्रो॒ नर्यपां॑सि॒ कर्त॒वेऽह॑न्वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जदर्ण॒वम् ॥

English Transliteration

tvaṣṭā yad vajraṁ sukṛtaṁ hiraṇyayaṁ sahasrabhṛṣṭiṁ svapā avartayat | dhatta indro nary apāṁsi kartave han vṛtraṁ nir apām aubjad arṇavam ||

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Pad Path

त्वष्टा॑। यत्। वज्र॑म्। सुऽकृ॑तम्। हि॒र॒ण्यय॑म्। स॒हस्र॑ऽभृष्टिम्। सु॒ऽअपाः॑। अव॑र्तयत्। ध॒त्ते। इन्द्रः॑। नरि॑। अपां॑सि। कर्त॑वे। अह॑न्। वृ॒त्रम्। निः। अ॒पाम्। औ॒ब्ज॒त्। अ॒र्ण॒वम् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:85» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:10» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे सभाध्यक्ष आदि कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - प्रजा और सेना में स्थित पुरुष जैसे (स्वपाः) उत्तम कर्म करता (त्वष्टा) छेदन करनेहारा (इन्द्रः) सूर्य (कर्त्तवे) करने योग्य (अपांसि) कर्मों को और (यत्) जिस (सुकृतम्) अच्छे प्रकार सिद्ध किये (हिरण्ययम्) प्रकाशयुक्त (सहस्रभृष्टिम्) जिससे हजारह पदार्थ पकते हैं, उस (वज्रम्) वज्र का प्रहार करके (वृत्रम्) मेघ का (अहन्) हनन करता है, (अपाम्) जलों के (अर्णवम्) समुद्र को (निरौब्जत्) निरन्तर सरल करता है, वैसे दुष्टों को (पर्यवर्त्तयत्) छिन्न-भिन्न करता हुआ शत्रुओं का हनन करके (नरि) मनुष्यों में श्रेष्ठों को (आधत्ते) धारण करता है, वह राजा होने को योग्य होता है ॥ ९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को धारण और हनन कर वर्षा के समुद्र को भरता है, वैसे सभापति लोग विद्या न्याययुक्त प्रजा के पालन व धारण करके, अविद्या अन्याययुक्त दुष्टों का ताड़न करके, सबके हित के लिये सुखसागर को पूर्ण भरें ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

प्रजासेनास्थाः पुरुषा यथा स्वपास्त्वष्टेन्द्रः सूर्यः कर्त्तवेऽपांसि यत् सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टं वज्रं प्रहृत्य वृत्रमहन् अपामर्णवं निरौब्जत् तथा दुष्टान् पर्यवर्त्तयच्छत्रून् हत्वा नर्याऽऽधत्ते स राजा भवितुमर्हेत् ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (त्वष्टा) दीप्तिमत्त्वेन छेदकः। त्विषेर्देवतायामकारश्चोपधाया अनिट्त्वं च। (अष्टा०वा०३.२.१३५) अनेन वार्त्तिकेन त्विषधातोस्तृन्। (यत्) यम् (वज्रम्) किरणसमूहजन्यं विद्युदाख्यम् (सुकृतम्) सुष्ठु निष्पन्नम् (हिरण्ययम्) ज्योतिमर्यम्। ऋत्व्यवा०। (अष्टा०६.४.१७५) अनेन सूत्रेण मयट् प्रत्ययस्य मकारलोपो निपात्यते (सहस्रभृष्टिम्) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पाका यस्मात्तम् (स्वपाः) सुष्ठु अपांसि कर्माणि यस्मात् (अवर्त्तयत्) वर्त्तयति (धत्ते) धरति (इन्द्रः) सूर्यः (नरि) नीतिमार्गे मनुष्ये (अपांसि) कर्माणि (कर्त्तवे) कर्त्तुम् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) उदकानाम् (औब्जत्) उब्जति सरलीकरोति (अर्णवम्) समुद्रम् ॥ ९ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षयित्वा प्रजाः पालयति तथा राजादयोऽविद्याऽन्याययुक्तान् दुष्टान् हत्वा सर्वहिताय सुखसागरं साध्नुवन्तु ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य मेघांना धारण व हनन करून वृष्टी करून समुद्रात जल भरतो. तसे सभापतींनी विद्या न्याययुक्त बनून प्रजेचे पालन, धारण करून अविद्या व अन्याययुक्त दुष्टांचे ताडन करून सर्वांच्या हितासाठी सुखसागर पूर्ण भरावा. ॥ ९ ॥